चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Monday, December 31, 2007

हैप्पी न्यू ईयर एक हॉस्य-कविता

हमने कहा जानेमन,हैप्पी न्यू ईयर...
हँसकर बोले वो,सेम टू यू माई डियर॥

पर पहले बस इतना बतलाओ,
आज नया क्या है समझाओ...

नये साल पर ही करती हो,मीठी-मीठी बातें...
चलो रहने दो हमको चूना मत लगाओ॥

कब मिली है हमको बिरयानी
अपनी तो वही रोटी और दाल है
सब कुछ तो है वही पुराना,
फ़िर भी कहती हो नया साल है॥

अच्छा छोडो़ बेकार की बातें
कुछ बात करो क्लीयर,
तुम भी मनाऒ जश्न अपना
क्या हमें भी लेने दोगी बीयर॥



नये साल का जश्न
कुछ ऎसा हम मनायें
भूल कर सारे गिले-शिकवे
पडौसन को भी बुलायें॥

बीयर तक तो श्रीमान की
बात समझ में आई
मगर पडौसन को बुलाने की
कैसी शर्त लगाई?

फ़िर भी दिल पर काबू करके
पोंछे हमने टियर्स,
देकर हाथ में चाय का प्याला
बोले उनको चियर्स॥



रहने दो जश्न नये साल का
हमे महंगा बहुत पड़ेगा
एक जश्न की खातिर तुमको
ऑवर टाईम करना पड़ेगा॥

फ़िर भी आज घर मॆ
सत्यनारायण पूजा हम करवायेंगे
पडौस वाली तुम्हारी बहन को
चाय भी जरूर हम पिलायेंगे



नही मनाना हमे नया साल
रहने दो डियर
टकरायेंगे चाय के प्याले
और कहेंगे चियर्स...



सुनीता(शानू)

नववर्ष आप सब की जिंदगी को सात रगों से सजायें
सात सुरों
की सरगम सा ये जीवन महक-महक जाये...

Monday, November 26, 2007

जिन्दगी कुछ ठहर सी गई...

दोस्तों आयोजन के इस चक्कर में जिन्दगी कुछ ठहर ही गई है...कुछ खुशीयाँ आपके साथ बाँटना भूल गई थी...अभी कुछ समय पूर्व (२ नवम्बर) को मेरे ब्लोग का जिक्र राजस्थान पत्रिका मे हुआ था इसके बाद(४ नवम्बर)मेरी एक रचना अमर उजाला में प्रकाशित हुई थी...मेरे लिये ये बेहद खुशी की बात थी मगर मै आपके साथ इसे बाँट ना पाई... आशा करती हूँ आप सभी का प्यार व स्नेह हमेशा मिलता रहेगा...






सुनीता(शानू)

Wednesday, November 21, 2007

लिजिये प्रस्तुत है कवि गौष्ठी के कुछ विडियो



विडियो से हमारा ब्लोग खुल नही रहा था इसीलिये
हमने हटा दिये है....


आप सभी को यह जानकर खुशी होगी कि आप सभी के सहयोग से हमारी गौष्ठी सफ़ल रही...और उन्हे मै कैसे भूल सकती हूँ प्रतीक शर्मा जी होशंगाबाद से जिन्होने नेट पर इस काव्य-गौष्ठी को प्रसारित करने में हमारी मदद की...कुछ इन्टरनेट की परेशानी वश मैं विडियो अपलोड नही कर पाई थी...मगर निराश न हो हाजिर है आप सभी के लिये कार्यक्रम की एक रिपोर्ट...






इस सम्मेलन की शाम जो रौनक बन कर आये...उन सभी की मै तहेदिल से कृतज्ञ हूँ...




संजय गुलाटी मुसाफ़िर जी ने किया कार्यक्रम का शुभ-आरम्भ...मगर उन्होने बहुत सोच-समझ कर राकेश जी के सम्मानित हाथों में सौपं दिया....






अभिनंदन समारोह






और अब राकेश जी के पुण्य हाथो से शुरुआत हुई हमारे कार्यक्रम की...

सबसे पहले हुआ राकेश जी द्वारा संचालन
और विनोद पाराशर जी का काव्यपाठ


महेश चंद्र गुप्त जी(खलिश) ने भी समा बांध दिया ...

राजीव तनेजा जी को हम कैसे भूल सकते है....पहला काव्य पाठ किया था उन्होने...

और नन्हा कवि अक्षय चोटिया क्या बात है


अजय जी आज आप गज़ल गाना भूल गये शायद....खैर बहुत सुन्दर कविता ने सभी को खुश कर दिया...

अविनाश वाचस्पति जी और पवन चंदन जी को हम दो नाम एक शख्स समझा करते थे...
बहुत सुन्दर सुनाया आप दो ने...

दिनेश रघुवंशी जी बहुत ही सुन्दर गीतकार है
उनका यहाँ आना हमारे लिये खुशी की बात थी और आपके साथ ज्योति कलड़ा जी का भी हार्दिक अभिनन्दन करते है...


अरे पंगेबाज से हमने पंगा नही लिया था...अरूण भाई आपका नाम तो समीर भाई ने लिया था...मगर आपकी कविता भी सबके मन को भा गई...
जिन्हे सुनने के लिये आप बेताब है लिजिये मिलिये सभी के प्रिय हमारे गुरुदेव समीर लाल जी


और हमने भी सुना ही दी एक कविता...अरे नही नही हमे तो विशेष डिस्काउंट मिला था ३ कवितायें सुनाने का...:)


सजीव जी की कवितायें भी उन जैसी ही सजीव है...


निखिल और शैलेश एक उभरता हुआ सितारा...आप सभी आशीर्वाद दे हम सभी को...


मोहिन्दर भाई क्या कहने....

अन्त मे परम आदरणीय हमारे गुरू के भी गुरु...
राकेश जी आपकी ही प्रतिक्षा में हैं हम सभी...


महफ़िल तो रौशन हो चुकी है मगर वो शक्स कहाँ है जो परवान हुई इस महफ़िल को समय की सीमा में बाधँ सके...
एक बार फ़िर आये कुँवर बेचैन साहब सभी की बेचैनी कम करने...


आप सभी का कोटि-कोटि आभार...

http://www.youtube.com/shanoo03

इस लिन्क पर जाकर आप अपनी कविता सुन सकते है

सुनीता(शानू)


Wednesday, November 14, 2007

सादर-अभिनंदन

आप सभी जिन्होने इस कवि-गौष्ठी को सफ़ल बनाने में मेरा साथ दिया है मै हृदय से नमन करती हूँ,

और बहुत से लोग जो नेट पर हमे देख सुन रहें थे उनका भी हार्दिक अभिनंदन करती हूँ,किसी भी कार्य की सफ़लता में कुछ बातें जरूरी होती है....विश्वास,लगन,और गुरूजनो का आशीर्वाद....यही इस कार्यक्रम की सफ़लता का राज है...मुझे आप सब पर और खुद पर पूरा विश्वास था और गुरूजनो का आशीर्वाद हमारे साथ था...तो कैसे न होती कामयाबी....मुझे बहुत से लोगो की व्यक्तिगत टिप्पणीयाँ मिली है मगर मै जानती हूँ उन पर आप सभी का हक है ...अतः यहाँ प्रकाशित कर रही हूँ....



कविता के सागर से निकली संवेदनाओं की खुश्बू मुझ तक पहुंची। बधाई। छोटी-छोटी कोशिशें कितना बड़ा काम कर जाती हैं, इतिहास हमें इनके उदाहरण देता है। यह आयोजन भी आने वाले दिनों में उसी इतिहास का हिस्सा होगा। कविता में बदलाव के सारे बड़े संदभॆ ऐसे ही छोटी-छोटी पगडंडियों से गुजरते हैं। समय सारी कोशिशो को अपने रजिस्टर में लिखता रहता है। ऐसे दौर में जब महानगरों में अतिथि के सत्कार से पहले उससे होने वाले ळाभ गिनने की रवायत चल रही हो, इस तरह के आयोजन को धारा के विपरीत एक जरूरी कोशिश के तौर पर दजॆ किया जाना चाहिए। हिंदी भाषा और हिंदी भाषी समाज दोनों पर अपने समय से पीछे चलने का आरोप है। तकनीकी से परहेज और कूप-मंडूक होने के तकॆ अक्सर दिए जाते हैं। लेकिन कमाल है साहब, हिंदी और तकनीकी के संगम ने होशंगाबाद, अमेरिका और दिल्ली सबको एक जगह जुटा दिया। मैं आप सब के लिए सिफॆ एक लफ्ज लिखना चाहूंगा-

जिंदाबाद।।।।

-प्रताप सोमवंशीस्थानीय संपादक,

अमर उजाला हिंदी दैनिक, ८९ इंडस्टियल

एस्टेट कानपुर


एक श्रोता एसे भी थे जो फोन पर ही कवि-गौष्ठी का आनंद ले रहे थे...


सुनीता जी नमस्कार,
मै कई दिनों से आपके घर होने वाले आयोजन की प्रतिक्षा कर रहा था,आज मैने इन्टरनेट के माध्यम से आपके आयोजन में जुड़ने की काफ़ी कोशिश की किंतु नाकामयाब रहा.तब मुझे एक उपाय सूझा,मैने सीधे आपके दिये हुए टेलिफोन पर नम्बर लगाया,जिन सज्जन ने फोन उठाया उनसे मैने कवि सम्मेलन सुनने की ख्वाहिश अर्ज की जिसे उन्होने स्वीकार कर लिया...और इस तरह मुझे फोन पर कवि सम्मेलन सुनने का मौका मिला.

मै ज्योति अरोड़ा जी के पहले काव्यपाठ कर रहे कवि की कविता अधूरी सुन पाया,अतः टिप्पणी नही कर सकूँगा.ज्योति जी की रचनायें सुनी,उनमें नयोचित कोमलता के साथ एक दबा हुआ सुप्त ज्वालामुखी अपनी पूर्ण ऊष्मा और ऊर्जा को संजोये परिलक्षित होता है

ज्योति जी के बाद संजीव जी का गीत सुबह के शीतल पवन झकोरों से उठती ताजगी का एहसास दे गया,वरिष्ठ गीतकार कुअर बेचैन तो जीवन्त किवंती (लिविंग लीजेण्ड) है-समकालीन समग्र भारतीय साहित्य की एसी निधी -जिसने शब्दो को अपने इशारों पर नचाया है और उन्हे जनसामान्य के समेकित सरोकारों को प्रतिध्वनित करने के लिये विवश किया है,समीर जी की कविता उनकी व्यापक सोच का सार्थक प्रतिबिम्बन करने में और साधारण सी अभिव्यक्तियों में छुपी कविता को निरायास अनावृत करने में कामयाब रही हैं

राकेश जी की रचनायें उनके विराट साहित्यिक व्यक्तित्व के अनुरूप रहीं.


आयोजन की सूत्रधार सुनीता(शानू) की कविता के नये तेवर जहाँ एक ओर नव-समाज की वैचारिक बारिकियों,प्ररुतियों और मनोदशा के नये सिरे से विश्लेष्णात्मक पड़ताल करते हैं वहीं दूसरी तरफ़ अपने बौध्विक दायित्वों से भी नावाकिफ़ नही हैं,वास्तव में व्यंग्य का उध्देश्य हँसाने की अपेक्षा मर्म पर चोट करने का ज्यादा है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में सुनीता जी की रचना प्रेम का प्रमाणपत्र एक सफ़ल रचना हैं.


शेष रचनाकारों को मै सुन नही पाया लेकिन उम्मीद है कि उनकी रचनाओं ने भी कवि सम्मेलन की ऊँचाईयां प्रदान की होगी, इस सफ़ल आयोजन हेतु आपको कोटिशः बधाइयां.

भवदीयः

आनन्द कृष्ण, जबलपुर.



आप सभी को जिस रिपोर्ट का बेसब्री से इंतजार है बह कुछ ही दिनो में आप विडियो सीडी के द्वारा देख और सुन सकेंगें....

सुनीता(शानू)

Thursday, November 8, 2007

कृपया ध्यान दिजियेगा...

आप सभी कवियों व श्रोताओ को सूचित किया जाता है कृपया आयोजन स्थल का पता नोट कर लें सभी के ई मेल एड्र्स नही आये है अतः मेरे लिये बहुत मुश्किल है आप सभी को बता पाना...जिनके है उन्हे मेल की जा सकती है मगर बाकि लोग पता व फोन नम्बर नोट कर लिजिये...

मंगलमय हो दीपो की माला
आप खुशियाँ खूब मनायें
भूली-बिसरी व्यर्थ की बातें
दिल से आज हटायें
गायें गीत नया ही कोई
छेड़े नया तराना
बस इतना है नम्र निवेदन
मुझको भूल न जाना

आप सभी को दीपावली बहुत-बहुत मुबारक हो...

Wednesday, November 7, 2007

निवेदन

सभी ब्लॉगर भाईयों,बहनो,दोस्तों.... से अनुरोध है अपना ई-मेल पता व फोन नम्बर शीघ्र दे दें..
जो लोग काव्य गोष्ठी में आ रहे है उनके नाम कल आ गये थे...और भी आना चाहते है तो आपका स्वागत है...
http://shanoospoem.blogspot.com/2007/11/blog-post_06.html


सुनीता(शानू)


Tuesday, November 6, 2007

कवियों और श्रोताओं के नाम...

आदरणीय हो सकता है कि फ़िर कोई गलती हो गई हो...माफ़ी चाहती हूँ...मै जिनके नाम लिख रही हूँ उन्होने अपनी उपस्थिती दर्ज करवा दी है...मगर जो संकोच वश नही करवा रहे है वो भी आमंत्रित है...अगर कोई गलती से अभी भी लिस्ट में रह गये हो बुरा न माने आप सभी सादर आमंत्रित है...

कवि + श्रोता

१.राकेश खंडेलवाल जी
२.समीर लाल जी
३.प्रत्यक्षा जी
४.डॉ.व्योम जी
५.महेश चंद्र खलिश जी
६.विजेंद्र एस विज जी
७संगीता मनराल जी
८.आलोक पुराणिक जी
९.अविनाश वाचस्पति जी
१०.नीरज दीवान जी
११.अरूण अरोड़ा जी
१२.सजीव सारथी जी
१३.अजय यादव जी
१४.भुपेंद्र राघव जी
१५.पवन चंदन जी
१६.चिराग जैन जी
१७.विनोद पाराशर जी
१८.अक्षय चोटिया जी
२०.सुनीता(शानू)
२१.अमित कुमार जी( दहिया बाद्शाह पोयट्री क्लब )
२२.विंग कमांडर प्रफ़ुल बक्षी जी
२३.कवि दिनेश रघुवंशी जी
२४.कवि सुनील जोगी जी(अभी पक्का नही)
२५.जज राजकुमार जी
२६.रिपुदमन जी(अभी पक्का नही)
२७.संजय गुलाटी जी मुसाफ़िर
२८.प्रो. अरविंद चतुर्वेदी जी

30.मोहिन्दर जी
३१.निखिल आनंद गिरी


श्रोता

१.राजीव तनेजा जी
२.राजीव अविवाहित
३.मैथिली जी
४.शैलेश जी
५.कमलेश मदान जी
६.सृजन शिल्पी जी
७.नीरज शर्मा जी
८.राजेश रोशन जी
९.मसिजीवी जी
१०.नीलीमा जी
११.सुजाता जी
१२.अतुल जी
१३.रंजना भाटिया जी
१४.जगदिश भाटिया जी
१५. रमेश जी
१६.विनोद बहल जी
१७.संदीप कपूर ओम जी
१८.मीनू जी
१९.अविनाश जी मौहल्ला
२०.अमित जी
२१.यशवंत जी

२२.महेन्द्र जी
२३. बालकिशन जी
२४.पारुल
२५.पुनित ओमर

कृपया जिन लोगो का नाम याद नही आ रहा है वे भी आयें...
सभी कवि श्रोता भी है अतः यह न सोचे कि श्रोता कम है...


आप सभी लोगो से अनुरोध है मुझे अपना ई मेल एड्रस अवश्य दे दें...ताकि मै आप सभी को मेरा फोन नम्बर व आयोजन स्थल का पता दे सकूं...

कृपया जिन बंधुँओ को जानकारी है लाईव ब्रोडकास्ट की कृपया मदद करें मुझे इस बारे में ज्यादा जानकारी नही है...क्यों कि बहुत से लोग दूर है और चाहते है समीर भाई और राकेश भाई के साथ हमारी गोष्ठी...तो कृपया वो लोग मदद करें और आगे आयें...

सादर

सुनीता(शानू)

Sunday, November 4, 2007

लिजिये प्रस्तुत है आमंत्रित कवियों और श्रोताओ की लिस्ट

जैसा कि मैने अपनी पिछली पोस्ट में लिखा था,कि ४ तारीख तक आप सब मुझे अपना नाम कवि या श्रोता के रूप में दर्ज करवा दें...तो अभी तक जिन लोगो ने अपना नाम ई-कविता , अनुभूति व हिन्द-युग्म गुगलसमूह मेल के जरिये प्रेषित किया है , और जिन्होने चिट्ठे पर आकर दर्ज करवाया है
सभी के नाम मै यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ...आशा करती हूँ वह सब समय पर पहुँच जायेंगे...आप सब को मै व्यक्तिगत मेल के जरिये अपना पता व फोन नम्बर दे दूँगी...कृपया जिन आदरणीय के ईमेल पते चिट्ठे पर नही है वह मुझे भेज दें...ताकी मै आपको आने का पता दे सँकू...वैसे तो प्रताप नगर मेट्रो स्टेशन है आराम से पहुँचा जा सकता है फ़िर भी कौन किस और से आयेगा इसका ध्यान रखकर एक नक्शा बनाया जायेगा...मै आप सब को यथा समय मेल कर दूँगी....

बहुत से लोग अभी भी अपने आने का दर्ज नही करवा पाये है उन सबसे निवेदन है एक-दो दिन में जल्द बता दें...आप समझिये मेरी परेशानी को
...आप सब के आने का पक्का होने पर ही सभी के खाने का प्रबंध हो पायेगा...सबकी पसंद की व्यवस्था होगी वेज /नान वेज...तो कितने लोगो की व्यवस्था करनी है इसमे आप अपनी आमद लिखवा कर मेरे साथ सहयोग किजिये...आपकी अति कृपा होगी...
कहीं ऎसा न हो की बैठने की कुर्सी कम पड़ जाये...जगह बहुत है मगर सीट उतनी ही लगवाई जायेगी जितने लोग आयेंगे... बाहर से आने वालो को अगर वो रूकना चाहते है तो अपने ठहरने कि व्यवस्था खुद ही करनी होगी...



आने वाले कवियों मे मुख्य है
.....................................................


राकेश खंडेलवाल जी
समीर लाल जी
प्रत्यक्षा जी

विजेंद्र एस विज जी
संगीता मनराल जी
महेश चंद्र गुप्त जी


संजय गुलाटी मुसाफ़िर जी
अविनाश वाचस्पति जी
नीरज दीवान जी


सजीव सारथी जी
अजय यादव जी
बी राघव जी

पवन चंदन जी
अक्षय चोटिया (ग्यारह साल का कवि)


श्रोता गण...
..................

मैथिली जी
अरूण अरोड़ा जी
शैलेष जी
कमलेश मदान जी
सृजन शिल्पी जी
नीरज शर्मा जी
राजेश रोशन जी
राजीव कुमार जी (अविवाहित)
पवन चंदँन जी


इसके अलावा कुछ मान्यवर एसे है जिन्हे मै बुलाना चाहती हूँ मगर वो आ नही पा रहे...या तो वो दूर है या मजबूर है...कुछ ने मेरे चिट्ठे पर टिप्पणी भी की है...
उनसे अनुरोध करती हूँ भविष्य में एक बार जरूर आने का कष्ट करें...इस वक्त मै ज्यादा जोर नही दे सकती क्योंकि यह दिपावली का पर्व है सभी व्यस्त भी होते है...

जिनके नाम इस प्रकार से है...

सारथी जे सी फिलिप
कवि कुलवन्त जी
संजीव तिवारी जी
संजीत त्रिपाठी जी
अफ़लातून जी
संजय भाई पटेल जी
संजय बेगानी जी
हर्षवर्धन जी
आशीष जी
महाशक्ती जी
पंकज अवधिया जी
दीपक भारतदीप जी
घुघूति जी
अनिता कुमार जी
मीनाक्षी जी
आशा जी
ममता जी
इन सब का नाम मैने दूसरी काव्य गौष्ठी के लिये रिजर्व कर लिया है तब कोई भी बहाना नही चल पायेगा...:)


फ़ुर्सतिया जी,हरिराम जी आलोक पुराणिक जी,जगदिश भाटिया जी मसिजीवी,मौहल्ला, अतुल जी,अरविन्द चतुर्वेदी जी,नीलिमा जी, सुजाताजी,रचना जी,काकेश जी, अमित जी,और मेरे हिन्द-युग्म के सभी सदस्य...क्या बात है भाई किस बात पर नाराज है आप सब...और बहुत से एसे लोग है जिनका नाम शायद मै भूल रही हूँ कृपया याद दिलायें...भूलने के लिये माफ़ी चाहती हूँ

आप सभी का सहयोग अपेक्षित है...मेलजोल की भावना हमे आपस में एक सूत्र में पिरोये रख सकती है...कृपया आप सीधे मेरे ब्लोग पर सम्पर्क करें कि आप अवश्य आ रहे है...



सुनीता(शानू)

Saturday, November 3, 2007

आईये ले चले चक्रधर के हास्य अखाड़े में


हमें तो मालूम ही न था कि ऎसी गज़ब कुश्ती होगी...बाईस पहलवान कवियों जिनमें दो अन्य कवियित्रीयाँ भी होंगी...सबने मिलकर हम पर अपनी कविताओं के साथ आक्रमण कर डाला...मगर हम भी डट कर उनका मुकाबला करते रहे....

लेकिन भैया हमारे साथ ऎक नाईन्साफ़ी हो गई हमारी प्रतियोगी कविता जो हम तीन दिन से रट रहे थे हमसे पहले एक ब्लागरिया कवि मित्र सुना गये...
हमने उनसे पूछा यह क्या गज़ब किया अब हम क्या सुनायेंगे...बहुत शर्मिंदा हुए और हमसे क्षमा मागंगे लगे...खैर तूफ़ानो में चलते है वो ही वीर सूरमा निकलते है हम अपनी दूसरी कविता को लेकर चकल्लस के अखाड़े मे उतर ही गये....
मगर अफ़सोस हमे तीसरा स्थान मिला..और उस तीसरे स्थान का भी निखिल आनंद गिरी के साथ बँटवारा हो गया...शुक्र है वो हमारे हिन्द-युग्म का ही सदस्य था वरना.........वरना क्या कर लेते भैया...ना तो चोरों का कोई ईलाज़ है न ही प्रतियोगी का...बाकी दो कवियित्रीयाँ भी अपना-अपना परचम फ़हरा ही गई जिनमे से एक हमारी हिन्द-युग्म की रंजना भाटिया थी...जो कह रही थी कि मेरा गला खराब है और आखिर गले में खराबी के साथ कविता सुना ही आई....

तो दोस्तों बस इतना ही बताऒ कि उस कविता चोर का क्या किया जाये...क्या कविता चोर से डर कर कविता ब्लोग पर पोस्ट न की जाये...या कोई आपकी कविता आपके ही मुँह पर सुना आये और आप मुँह ताकते रह जायें....


चलो जीत तो लाये है आप लोगो के लिये प्रतियोगिता का तीसरा ईनाम...अब कुछ तालीयाँ आप भी बजाईये....

१२ नवम्बर को आप सबका हार्दिक स्वागत है कृपया आप सभी कवि व श्रोता ४ तारीख तक अपनी उपस्थिती दर्ज करवायें...


सुनीता(शानू)

Tuesday, October 30, 2007

सादर-निमन्त्रण

आदरणीय आप सभी को सूचित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है की हमारे गुरूदेव श्री समीरलाल जी अपनी उड़न तश्तरी पर सवार होकर श्री राकेश जी के साथ १२ तारीख को दिल्ली आ रहे है...अतः हमने उनके स्वागत में अपने आवास (प्रताप नगर...दिल्ली-७) १२ तारीख की शाम ४ बजे एक छोटी सी गोष्ठी रखी है जिसमें आप सभी सादर आमन्त्रित है...कृपया जो लोग काव्य-गोष्ठी मे हिस्सा लेना चाहते है अपना नाम दर्ज करायें...

लेकिन आमन्त्रित सभी हैं इस मौके को आप न छोडे़ .....और जो भी इस मेल-मिलाप मे हिस्सा लेना चाहते है ४ तारीख तक अपना नाम दर्ज करायें ताकी हम उसी प्रकार से व्यवस्था कर सकें...



आवास का पता आप सभी को अगली पोस्ट में दे दिया जायेगा...आयोजन दोपहर ३ बजे से जब तक आप चाहें...तब तक रहेगा...



सुनीता(शानू)


कृपया ध्यान दे...आप सभी आमंत्रित है सिर्फ़ कवि ही नही....

Sunday, October 28, 2007

आईये एक बार फ़िर ले चलें हास्य की दुनियाँ में

करवा चौथ

एक दिन लक्ष्मी जी से आकर, बोले उल्लूराज।
सारी दुनियाँ पूजे तुमको,
मुझे पुजा दो आज॥



मै वाहन तेरा हूँ माता, कभी न पूजा जाता।
कोई नही फ़टकने देता जिस घर में मै जाता॥





ऎसा करो उपाय कि माता मै भी पूजा जाऊँ।
ज्यादा नही एक दिन तो माँ,मै भी
देव कहाऊँ॥




उल्लू जी की बातें सुनकर,
लक्ष्मी जी यों बोली।
मेरे प्यारे उल्लू राजा, बहुत हुई ठिठौली...



नाम तुम्हारा सारे जग में
मुझसे भी ज्यादा आता।
कभी-२ अच्छे से अच्छा उल्लू का पट्ठा कहलाता॥



बात करो मत पूजन की,
एक दिन तेरा भी है आता।
दीवाली के ग्यारह दिन पहले ही उल्लू पूजा जाता॥



करवा चौथ का दिन होता है एसा महान प्यारे।
इस दिन पूजे जाते हैं दुनियाँ भर के उल्लू सारे॥


सुनीता(शानू)...:)

Sunday, October 14, 2007

ऎ जिन्दगी

ऎ जिन्दगी तुझको अब मैने पुकारा नहीं
सारे जहाँ में तुझको कोई भी प्यारा नहीं

खो गई हूँ खुदी में,जब मिली खुद से मै
लेकिन लबो पर नाम भी अब तुम्हारा नहीं

छोड़ दे तनहा मुझको अब ना तड़पा मुझे
ऎसा नहीं कि तुझ बिन अब मेरा गुजारा नहीं

तेरी बेवफ़ाई कि तुझको, मै दूँ क्या खबर
मेरे दिल का एक टुकड़ा भी अब तुम्हारा नहीं

मेरी पलकों पे ठहरे अश्क न बहेंगे कभी
वेवजह मिट्टी मे मिलना इनको गवाँरा नहीं

मेरी खामोशियों को न बहला चली जा अभी
मेरी यादों का एक लम्हा भी अब तुम्हारा नहीं

जिन्दगी ख्वाब है ख्वाब बन मिली थी कभी
मेरी पलको को ख्वाबों का भी अब सहारा नहीं

तेरी चाहत नही,तुझसे कोई तमन्ना भी नहीं
तेरे गुलशन का कोई फ़ूल भी अब बेसहारा नहीं...

सुनीता(शानू)

Tuesday, October 2, 2007

विचारों की श्रंखला


विचारों की श्रंखला
टूटती ही नही
एक आता है एक जाता है
दिन भर हावी रहते है
लड़ते रहते है
अपने ही वज़ूद से
और
विचारों का आना-जाना

पीछा नही छोड़ता
नींद में भी
पिघलते रहते हैं
रात भर

स्वप्न में भी
और
नींद खुलने के साथ
हावी हो जाता है

एक नया विचार

पूरे दिन की कशमकश में
जीतता वही है
जो ताकतवर होता है
वकीलो की तरह
झूठी सच्ची दलीलों की तरह


आत्मा विरोध करती है
सरकारी वकील की तरह
मगर सबूतों के अभाव में
दिन-भर की लड़ी हुई
थकी माँदी निर्बल आत्मा से
झूठी बेबुनियाद दलीले
जीत जाती है

जैसे बीमारी के कीटाणु
बीमार शरीर को ही
जल्दी शिकार बनाते हैं
और शरीर को सजा हो जाती है
मनोविकारों से पीड़ित रोगी
जो दिमाग का संतुलन खो बैठते है
खुद को पाते है...

शून्य में

सुनीता शानू

Monday, October 1, 2007

एक गीत बापू जयंती पर...

(यह तस्वीर जीतू भाई के एलबम से ली गई है,अगर उन्हे आपत्ति होगी तो मै हटा दूँगी)





बापू ने दिया हमको बस एक ही नारा

अंग्रेजो भारत छोड़ो, हिन्दुस्तान हमारा...



एक अकेला वीर वो एसा

जिसने क्रांति का झण्डा फ़हराया

सत्य,अहिन्सा,और शांती का

जिसने देश में दीप जलाया

बलिदानी भारत भूमि को वो बापू प्यारा...
हिन्दुस्तान हमारा...



ना हिन्दू ना मुस्लिम कोई

ना सिख ना ईसाई

बापू को प्यारे सब मजहब

सब हिन्दूस्तानी भाई

हरिजनो को भी बापू ने दिया सहारा

हिन्दुस्तान हमारा...



एक खादी का लंगोट पहन

सबके दिल पर राज किया

विदेश माल को फ़ूंका

खादी का प्रचार किया

चरखे कि आवाज ने लोगो को पुकारा

हिन्दुस्तान हमारा...



सच्चाई पर अड़ा रहा

अपनी नींद उड़ा कर

देश कि खातिर जेल गया

सारे सुख लुटा कर

हर मुश्किल में डटा रहा कभी न हिम्मत हारा

हिन्दुस्तान हमारा...



दांडी की यात्रा कर

अपने हाथो नमक बनाया

सारे देश को सत्याग्रह का

जिसने पाठ पढ़ाया

आज़ादी का मतवाला वो सारे देश का प्यारा

हिन्दुस्तान हमारा...



अंग्रेजो से टक्कर लेकर

सत्य की ज्योत जलाई

देकर अपने प्राण जगत में

वीरो की गती पाई

याद रहेगा बापू हमको वो बलिदान तुम्हारा

हिन्दुस्तान हमारा...



सुनीता(शानू)

Saturday, September 29, 2007

तो फ़िर प्यार कहाँ है?


बहुत खुश थी वह
कि सब कितना प्यार करते है
कितना ख्याल रखते है

उसका
बाबूजी का चश्मा
जो अक्सर रख कर भूल जाते थे
या फ़िर उनकी कलम
सभी का ख्याल रखती थी

वो
पति को सम्भालना
सर दबाना,पैर दबाना
चाहे सारा दिन की कशमकश से थक गई हो

मगर
कभी मन भारी नही लगता था
बच्चो का प्यार तो भरपूर था
जैसे की भरा समुन्दर
जेब खर्ची बच्चे माँ से पाते थे
हर गलती पर
माँ का आँचल बचाता था

उन्हे
वह पेड़ की छाल ही नजर आती थी
जैसे की पेड़ कटने से पहले
हर मुसीबत
छाल को ही सहनी पड़ती है
मगर आज बरसों बाद
यह भरम भी टूट गया

जब
एक लम्बी बिमारी ने

अपना जामा पहना दिया
और वह टूट कर बिखर गई
चारपाई पर
कुछ दिन लगा
कि सभी कितना प्यार करते है
मगर एक दिन

शीशे सा मन टूट गया
आज वो समझी
यह प्यार नही था
वह सबकी जरूरत थी
हाँ शायद
इन्सान की कीमत
उसके बस काम से है
और फ़िर
उसने जाना...
बेकार,बेरोजगार,बीमार,लाचार इन्सान
किसी काम का नही

तो फ़िर प्यार कहाँ है?

मगर लगता है
मन के किसी कौने में
प्यार अभी बाकी है
क्या घर के नौकर सी बदतर है
औरत की जिन्दगी
क्या उसे परेशान देख कर
घर की आँखें रोती नही
हाँ सबकुछ था पास
मगर विश्वास कहीं खो सा गया था
कुछ न कर पाने पर
जब निराशा हावी हो जाती है
इन्सान की समझ पर
पर्दा गिर जाता है
और
उसके लिये परेशान आँखे
शायद
उसे अहसास दिलाती रहती है
कि आज
जब कोई तुझे पुकारता नही
तो लगता है प्यार नही
और वह पूछती है खुद से

तो फ़िर प्यार कहाँ है



Friday, September 28, 2007

भगत सिंह हमारा(गीत)


सारे जग में सबसे न्यारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा
भारत माँ की आँखों का तारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा

एक पंजाबी एसा जिसने
देश की खातिर जान लुटा दी
आज़ादी की खातिर जिसने
पल में सारी उम्र गँवा दी
वो सेनानी सबसे न्यारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा

फ़ेंक असैम्बली में बम जिसने
अंग्रेज़ी हुकुमत को हिला दिया
छोटी सी उम्र में इन्कलाब ला
सोई रूहो को जगा दिया
सांडर्स की हत्या कर जिसने
फ़िरंगी को ललकारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा

देश के खातिर मिट जाने को
एक पल भी न व्यर्थ गँवाया
हँसते-हँसते चढ़ा फ़ाँसी पर
शहीद भगत सिंह नाम कमाया
वो भी था एक बेटा प्यारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा

अगर मिले जो जन्म कभी तो
भगत सिंह सा मिल जाये
देश के खातिर मर मिट जाये
अपनी कहानी लिख जाये
रहे सलामत गुलिस्ता हमारा
था जिसका एक ही नारा
भगत सिंह हमारा...भगत सिंह हमारा

सुनीता(शानू)

Friday, September 14, 2007

हम हिन्दी अपनायेंगे (हास्य-व्यंग्य)

मेरी यह कविता मेरे गुरूदेव के चिट्ठे का काव्यरूपांतरण है...बस यूं ही हँस दिजिये चलते-चलते...



कनाडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों ने,
हिन्दी-दिवस कुछ एसे मनाया...
माँ शारदा की मूरत के आगे,
दीप भारतीय एक जलाया...

भारत से आये एक अधिकारी को,
मुख्य अतिथी बनाया,
हिन्दी हमारी पहचान है कहके
हिन्दी का महत्व समझाया...

गर्मी के मौसम में अतिथी,
गर्म सूट पहन कर आये...
सुनकर भाषण हिन्दी में,
बहुत ही वो घबराये...

आया पसीना देख उन्हे जब,
आयोजक ने पंखा चलवाया...
चली हवा जब पंखें की,
दीपक थौड़ा सा टिमटिमाया...

आखिर अंग्रेजी हवा के आगे,
लौ थौडी़ सी लड़खड़ाई,
बोझिल नजरों से ताकती सी,
बुझ गई जैसे हो पराई...

फ़िर जलाया दीप किन्तु,
जल्द ही बुझा दिया,
माँ शारदा की मूरत को भी,
उठा बक्से में बन्द किया...

हुआ समापन हिन्दी-दिवस,
सबने सयोंजक को थैंक्यू कहा,
एक शब्द न था हिन्दी का,
हिन्दी पखवाड़ा खत्म हुआ...

फ़िर आयेंगे अगले साल,
हिन्दी-दिवस मनाने को...
हम भी है हिन्दी-भाषी,
बस इतना समझाने को...

अंग्रेजी मुल्क में रहकर भी,
दिल से हम हिन्दुस्तानी है,
बदल गये परिवेश हमारे,
सूरत तो जानी पहचानी है...

अंग्रेजो की नौकरी करते,
हिन्दी को घर मे कैसे रखते,
नमक जो खाते है अंग्रेजी,
नमक हरामी कैसे करते...

माना हम तो गैर मुल्क में
रहकर भी हिन्दुस्तानी है...
पर ए हिन्दुस्तां वालो,
तुम्हे हिन्दी से क्या परेशानी है...

हरिराम को तुम हैरी कहते,
द्वारिका दास अब डी डी है...
माँ जीते जी मम्मी बन गई,
पिता बने अब डैडी है...

क्यों अंग्रेजी सर उठा के
फ़टाफ़ट बोले जाते हो,
मातृभाषा के नाम से ,
क्यों इतना कतराते हो...

राजभाषा होकर भी
हिन्दी बनी नौकरानी है,
अंग्रेजी पराई होकर भी,
बनी भारत की रानी है...


आओ हिन्दी को अपनाएं
विश्वास ये अटल रहे
हिन्दी है राष्ट्रभाषा हमारी,
हिन्दी सदा अमर रहे...


हिन्दी सदा अमर रहे...

हिन्दी-दिवस पर आप सभी को हर्दिक शुभकामनाएं


सुनीता(शानू)

Wednesday, September 5, 2007

हास्य-कविता ये शिक्षक

सच ही कहा है गुरू बिन ज्ञान नहीं,
गुरू नहीं जब जीवन में मिलते भगवान नहीं
आज शिक्षक दिवस पर उन सभी गुरूओं को मेरा नमन जिन्होने निःस्वार्थ भाव से नन्हें, सुकोमल कच्ची मिट्टी से बने बच्चों का मार्ग दर्शन किया और उन्हें सही मार्ग दिखलाया...
मगर मेरी यह कविता उन शिक्षकों के लिये है जो स्वार्थवश अपने कर्तव्य भूल गये हैं...

ये शिक्षक

नहीं चाहिये हमें ये शिक्षा

अनपढ़ ही रह जायें....

एसे गुरूओं से भगवान बचाये


नकली डिग्री ले लेकर जो

गुरू बन बैठे हैं,

गलत ज्ञान को सही बता

घमंड में ऎंठे है

कैसे कोई झूठी आशा इनसे लगायें

एसे गुरूओं से भगवान बचाये



जैक और चैक के चक्कर में

शिष्य चुने जाते हैं

गरीब घर के बच्चे

न उच्च शिक्षा पाते हैं

गुरू ही जब व्यापारी बन जायें

ऎसे गुरूओं से भगवान बचाये


गुरू बने है सर आज

शिष्य बने स्टुडैंट है

मेरे भारत को बना के इडिया

बजा रहे बैंड हैं

गुरू वंदना, गुड मॉर्निंग कहलाये

ऎसे गुरूओं से भगवान बचाये


रक्षक ही भक्षक बन कर

शोषण बच्चों का करते हैं

वो गुरू भला क्या बनेंगे

जो गलत राह पर चलते हैं

बलात्कारी,अत्याचारी जब गुरू बन जायें

ऎसे गुरूओं से भगवान बचाये


गुरू नहीं जब गुरू द्रोण से

कैसे अर्जुन बन जाते

रामायण,गीता के बदले

हैरी-पोटर पढ़वाते

उल्टी बहती गंगा में सब नहायें

ऎसे गुरूओं से भगवान बचाये


सुनीता(शानू)


Tuesday, September 4, 2007

हे राधे-श्याम

आज जन्माष्टमी के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभ-कामनाएं...आज मै ना आऊँ और ना लिखुं कुछ कैसे हो सकता है...बहुत व्यस्त हूँ मगर श्याम सखा के लिये हर्गिज नही...एक छोटा सा गीत लिखा है कभी मीरा बनके तो कभी राधा बन के हर रूप में साँवरे को चाहा है सभी ने... वो मुरली मनोहर न जाने कैसा जादू करता है कि उससे प्रेम करना भी बहुत सुहाता है सभी को...आईये जन्माष्टमी के इस अवसर पर हम सभी उस श्याम सखा को याद करें...

सुन सखी ओ चँचल नैना,

जागी न सोई मै सारी रैना,

रात सुहानी फ़िर वो आई,

आँखों में भी मस्ती छाई...

डाल गले बाहों का गहना,

हुए एक नैनो से नैना...

सुन सखी ओ चँचल नैना

जागी न सोई मै सारी रैना

रूप मनोहर श्याम सुन्दर वो

झुका जो धरती पे अम्बर हो

बाजे पायल खनके कंगना

चमकी बिजुरिया सारी रैना...

सुन सखी ओ चँचल नैना

जागी न सोई मै सारी रैना

मौन निमन्त्रण मेरा समर्पण

चिर निद्रा सा सुखद आलिंगन

समा गई मै उर बीच लता सी

पलक सम्पुटो में मदिरा सी

हुआ समर्पित प्रेम सुवर्णा

सुन सखी ओ चँचल नैना...

सुनीता(शानू)




Tuesday, August 14, 2007

अमर शहिदो के नाम




साठ साल के इस बूढे भारत में,
क्या लौटी फ़िर से जवानी देखो,

आजादी की खातिर मर-मिटे जो,

क्या फ़िर सुनी उनकी कहा्नी देखो...


कहाँ गये वो लोग जिन्होने,

आजादी का सोपान किया था,

लगा बैठे थे जान की बाजी,

आजाद हिन्दुस्तान किया था...


मेरे भारत आजाद का कैसा,

बना हुआ ये हाल तो देखो,

अमीर बना है और अमीर,

गरीब कितना फ़टेहाल ये देखो...


माँ बहन की अस्मत को भी,

सरे-आम नीलाम किया है,

बेकारी और भुखमरी ने,

अंतर्मन भी बेच दिया है...


क्या पाया क्या खोया हमने,

छूट रही जिन्दगानी देखो,

आतंकवाद और भ्रष्टाचार की,

बढ रही रवानी देखो...


अमर शहिदो की शहादत को,

आज ही क्यूँ याद किया है,

क्यूँ आज नही फ़िल्मी चक्कर,

जो राष्ट्र-गान को याद किया है...



शराब और शबाब में डूबे,

मचा रहे धमाल ये देखो,

किन्तु राष्ट्र-गान की खातिर,

तीन मिनट में बेहाल ये देखो...



अब भी जागो ए वतन-वासियो,

याद करो वो कुर्बानी,

जिस देश में एक दूजे की खातिर,

आँखों से बहता था पानी...



आज लहराये तिरंगा हम सब,

और तिरंगे की शान तो देखो,

आओ आजादी का जश्न मनाये,

अमर शहिदो के नाम ये देखो...





सुनिता(शानू)

Sunday, August 12, 2007

हास्य कविता


(इस तस्वीर से किसी को आपत्ति हो तो हटाई जा सकती है )

छः महिने की छुट्टी लेकर हम तो बहुत पछताये,
दो हफ़्ते में ही देखो लौट के बुध्दू घर को आये...

सिगरेट,कोकीन के जैसे ही ब्लागिन ने नशा चढा़या
इस ब्लागिन के चक्कर ने निकम्मा हमें बनाया...


जाकर ऑफ़िस में जब बैठे, लेखन का ही ध्यान रहा
बिजिनेस मीटिंग में भी ,कविता का ही भान रहा...

चाय के सब ऑडर हमने उलट-पलट कर डाले
मैनेजर,क्लर्क सभी को कविता पर भाषण दे डाले...

छोड़ काम-धाम सभी जब बैठे तुकबंदी करने
एक-एक कर लग गये सभी कविता लिखने...


कुछ ना पूछो भैया सबने कैसा हुड़दग मचाया
अच्छे खासे ऑफ़िस को कवि-बंदर-छाप बनाया...


दो हफ़्ते की इस दूरी ने कितना हमे रूलाया
भूले बिजिनेस हम ,जब ख्याल कविता का आया...


न जायेंगे अब छोड़ तुम्हे ए कविता,
कहते है गुड़ खाके...
रहे सलामत अपनी ब्लागिन
करें टिप्पणी बरसाके...


सुनीता(शानू)

Wednesday, August 1, 2007

अलविदा मित्रों

अलविदा दोस्तों आज मै आप सब लोगों से विदा लेती हूँ कुछ समय उपरांत मै अवश्य लौट कर आऊंगी आपकी हमारी इस छोटी सी दुनिया में मगर अब मुझे कुछ जरूरी काम करने हैं यही समय है जब मेरा चाय का बिजिनेस पुरे जोरो पर होता है...अतः अब मुझे ६ महिने का ब्लागर्स की दुनिया से अवकाश चाहिये...मै जानती हूँ मै आप सभी को बहुत miss करूंगी मगर मेरा एक कर्तव्य अपने पति और बच्चों के प्रति है,आप लोगो से बस एक निवेदन है मुझे भूल मत जाना मै फ़िर लौट कर आऊंगी...और हाँ अगर हो सका तो कविताओं पर कभी-कभार टिप्पणी अवश्य करूंगी...मगर मै 6 महिने तक कोई कविता नही लिख पाऊँगी.............

आपके प्यार और स्नेह के लिये बहुत-बहुत आभारी हूँ

आपकी सुनीता(शानू)

Tuesday, July 31, 2007

दिल फेंक आशिक




है दिल फेंक आशिक जमाने में बहुत,
अपने दामन को बचा कर रखिये।




न ठहर जाये अश्क आँखों में कहीं,
अपनी पलकों को झुका कर रखिये।




इश्क में मिलती है बस तनहाई यहाँ,
अपने दिल को गुलशन बना कर रखिये।




गम में रोना न पड़ जाये उम्र भर तुझको,
उस सितमगर को मेहमां बना कर रखिये।




बेवफ़ा हैं ये जमाने के रहनुमा सारे,
दिल के आईने में खुद को सजा कर रखिये।





ऎसा न हो लग जाये चोट दिल पर कोई,
अपने दिल को पत्थर सा बना कर रखिये।


बदनाम न कर दे दुनियाँ की जालिम नजरे,
खुद को दुनियाँ की से नजरों से बचा कर रखिये।




सुनीता शानू




Monday, July 30, 2007

है कौन जिसे प्यास नही है....



है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,
जीने की किसे आस नही है...

प्यास जहाँ हो चाहत की,
जिन्दा दफ़नाएं जाते है,
हर दिल में मुमताज की खातिर,
ताज़ बनाएं जाते है...
विरान है वो दिल जिसमे मुमताज नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,

प्यास जहाँ हो पिया मिलन की
वहाँ स्वप्न सजोंये जाते है
प्रियतम से मिलने की चाहत में
नैन बिछाये जाते है
प्यासे नैनो में आँसू की थाह नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो बस जिस्म की
दामन पे दाग लगाये जाते है,
कुछ पल के सुख की खातिर
हर पल रूलाये जाते है
माटी के तन की बुझती प्यास नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो दौलत की,
कत्ल खूब कराये जाते है,
अपने निज स्वार्थ की खातिर,
दिल निठारी बनाये जाते है...
खून बहा कर भी मिलती एक सांस नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,

प्यास जहाँ हो शौहरत की,
रिश्ते भुलाये जाते हैं,
एक नाम को पाने की खातिर,
हर नाम भुलाये जाते हैं
भाई से भाई लड़े रिश्तों में आँच नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो वतन की,
वहाँ शीश नवाये जाते हैं,
धरती माँ के मान की खातिर,
सर कलम कराये जाते हैं
आज़ादी की रहती किसको आस नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है
जीने की किसे आस नही है॥


सुनीता(शानू)

Saturday, July 28, 2007

एक अजनबी




चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा,
क्यूँ कोई दिल में आज मेरे धड़कने लगा…


किससे मिलने को बेचैन है चाँदनी,
क्यूँ मदहोश है दिल की ये रागिनी,
बनके बादल वफ़ा का बरसने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



गुम हूँ मै गुमशुदा की तलाश में
खो गया दिल धड़कनो की आवाज़ में
ये कौन सांस बनके दिल में महकने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



हर तरफ़ फ़िजाओं के हैं पहरे मगर,
दम निकलने न पायें जरा देखो इधर,
जिसकी आहट पर चाँद भी सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



रात के आगोश में फ़ूल भी खामोश है
चुप है हर कली भँवरा भी मदहोश है
बन के आईना मुझमें वो सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा




ना मै जिन्दा हूँ ना मौत ही आयेगी
जब तलक न तेरी खबर ही आयेगी
बनके आँसू आँख से क्यूँ बहने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा




सुनीता(शानू)

Friday, July 20, 2007

क्यों आते है गम हर रोज






क्यों आते है गम
हर रोज
जिन्दगी में
क्योंकि तुम बुलाते हो,

मगर कैसे
कौन चाहेगा दुखी होना
गम से सराबोर जिन्दगी
किसे पसंद है

मगर यही सच है
तुम्ही बुलाते हो
याद रखते हो हर पल
पिता का वो चाँटा
जो लगाया था तुम्हारी नादानियों पर,
या गुरू की वो फ़टकार
जो कभी लगाई थी तुम्हारी शैतानियों पर,


मगर भूल जाते हो,
पिता के दुलार को,
गुरू के आशीर्वाद को,
जो दिया था कभी
तुम्हारी हर कामयाबी पर,


हर कड़वी बात याद रहती है
अपने अज़ीज की तरह
सोचो
जिससे इतनी चाहत है
हर पल अहसास है जिसका
वो भला क्यों नही आयेंगे

खड़े रहेंगे तुम्हारे दरवाजे पर
मेहमान बनकर
जब भी बुलाओगे
चले आयेंगे
आने का प्रयोजन
मै तुम्हारे हर पल साथ हूँ
तुम भी तो मुझे भूलते नही
खुशी के क्षणों में भी
तो मै बेवफ़ा कैसे हो सकता हूँ
जब भी बुलाओगे दौड़ा चला आऊँगा


और आना कैसा मै तो रहता हूँ
दिल में तुम्हारे
जरा गौर से देखो
गमों ने तुम्हारे दिल को छलनी कर दिया है
जैसे कि दीमक
मन की दिवारों को खा गई हो
आलस्य बढ़ता जाता है,
चारों और बेचारगी ओर तनहाई का आलम है


ये सब मेरे मित्र है
जब भी आता हूँ
इन्हे भी साथ ही लाता हूँ


इतना बेगैरत नही हूँ


"जब बुलाते हो
तब ही आता हूँ"

सुनीता(शानू)



Monday, July 16, 2007

चलिये थोड़ा हास्य हो जाये



ये कविता हास्य-व्यंग्य पर आधारित है
कृपया इसे अन्यथा ना लिया जाये हँसी के साथ पढ़ा जाये और हँसगुल्ले की तरह उड़ा दिया जाये...

कह रहे वृतान्त सारा,
सुन लिजे कान लगाय,
ब्लागर मिटवा में गुरूवर,
अब ना हम जा पाय।

अब ना हम जा पाय,
वहाँ बस होती टाँग खिंचाई,
मेल-मिलाप तो दूर ही समझो,
रिश्तों में भी चतुराई।

रिश्तों में भी चतुराई,
हमसे न देखी जाये,
हम ठहरे सत्संगी भैया,
कुछ भी समझ ना पाये।

कोई आये बनारस से,
तो कोई नाथ के द्वारे,
कोई आये गुजरात से,
तो कोई अहमदाबाद से प्यारे।

हम तो समझ न पाये,
क्यों होती गुटबन्दी,
चौबारे पर बैठके,
क्यों बाते करते मंदी।

क्यों बातें करते मन्दी,
फ़ुनवा को कान लगाय,
बातों में भी हेरा-फ़ेरी,
हम तो समझ न पाये।

आपस में परिचय कर,
बैठे सीट लगाये,
तभी एक कौने से,
वेटर जी आये।

एक दूजे की शकल देख-कर,
सब ही बहुत चकराये,
जब वेटरजी ने आकर,
सबको मीनू पकड़ाये।

झाँका-झाँकी शुरू हुई जब,
सब अपनी शकल छुपायें,
वेटर जी भी देख सभी को,
मंद-मंद मुस्काये।

मंद-मंद मुस्काये गुरूवर,
हम तो शर्म से गड़ ही जाय,
जैसे ही आये प्रबंधक,
सबने वेटर को दिये बताय।

कॉफ़ी पीकर जैसे ही हम,
बैठे कुछ सुस्ताने,
तभी पलायन किया जाये,
लगे सभी बतियाने।

क्या बतलाये हम तुमको.
सोच-सोच कर पछताये
यहाँ से वहाँ दौड़ लगाते,
बहुत ही हम शर्माये।


कलम दिवानी क्या करे,
कोई हमे समझायें,
बिन स्याही के भी देखों,
कैसन चलती जाये।


कैसन चलती जाय गुरुवर,
एसी मारे मार,
ढोल की पोल भी खोल दे,
अंटाचीत भी लाये।

छोड़ बात अधूरी प्रभुजी,
हमतो रहे सकुचाये,
सारा विवरण दे पाते,
वो शब्द कहाँ से लाएं।

गदहा लेखन का काम गुरुवर
तुमही रहे सिखलाये
एक ही गदहा लिखा था हमने
लिख कर हम पछताये

लिख कर हम पछताये,
आहत मित्र किये सभी
पढ़ हमारे गद्य को
हो गई कैसी तना तनी।

हो गई तना-तनी
हमको रहे समझायें
जो कर रहे मन-मौजी
उनको रहे टिपीयाये।

उनको रहे टिपीयाये गुरूवर,
हमसे ना देखा जाये,
तुम भी होगये पराये गुरुवर,
अब ना हम जा पायें।

सुनीता(शानू)

http://sanuspoem.blogspot.com/ का पूण विवरण)

Sunday, July 8, 2007

आधुनिक द्रोपदी (कृपया फ़िर पढ़े)

NARAD:Hindi Blog Aggregator


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी मुझे लगता है ये बहुत जरूरी है कि मै अपनी कविता के बारे में पहले आप सभी को कुछ निवेदन करूँ क्योंकि बहुत से मित्र-गण मेरी बात शायद ठीक से समझ नही पाये है...
...आज दुनिया में कितने लोग एसे है जो राम का नाम रख कर राम की भूमिका निभा रहे है...कितने लोग एसे है जो कृष्ण का नाम रख कर कृष्ण की भूमिका निभा रहे है...कृष्ण के जिस रूप से मै प्यार करती हूँ वो भगवान है मगर इस कविता में जिस रूप का वर्णन है वो सिर्फ़ एक नाम है... कृष्ण नही...यदि कोई कृष्ण भक्त यह कृष्ण का अपमान समझ रहा है तो मै उन सभी से विनती करती हूँ कृपया एसा ना समझे कृष्ण तो मेरे आराध्य है मै भला उनके लिये कुछ कैसे कह सकती हूँ ये उन लोगो के लिये कहा गया है जो सिर्फ़ नाम के कृष्ण है और जब द्रोपदी खुद ही निर्वस्त्र है तो ये नाम के कृष्ण भी क्या कर सकते है...आशा है आप अन्यथा न लेंगे...
मेरी यह कविता हास्य तो नही मगर व्यंग्य जरूर है आज के समाज पर, शायद अपने शब्दो से कुछ समझा ही पाऊँ…

एक गली के नुक्कड़ पर
खड़े हुए थे चार किशोर
मुरलीमनोहर,श्यामसुंदर,
माधव और नन्दकिशोर…

खड़े-खड़े होती थी उनमें
मस्ती भरी बातें,
रोज होती थी चौराहे पर
उनकी मुलाकाते…

तभी गुजरी वहाँ से
एक सुंदर बाला
चाल नशीली लगे कि जैसे
चलती-फ़िरती मधुशाला…

झाँक रहा था बदन
आधे कपड़ो में
जरा नही थी शर्म
उसके नयनो में…

देख प्रदर्शन अंगो का
हुए विवेक-शून्य किशोर
धर दबोचा एक पल में उसको
मचा भीड़ में कैसा शोर…

द्रोपदी ने गुहार लगाई
भूल गये तुम हे कन्हाई

कहा था तुमने हर जनम में,
तुम मेरी रक्षा करोगे
जो करेगा चीर-हरण द्रोपदी का
नाश उसका करोगे…

कृष्ण ने अट्टहास किया
द्रोपदी का उपहास किया…

है कहाँ वस्त्र अंगो पर
जो मै लाज बचाऊँ
तुम खुद ही वस्त्र-हीन हो
कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ…

कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ...

सुनीता(शानू)

Friday, June 29, 2007

हे अमलतास

हे अमलतास

तपती धरती करे पुकार,

गर्म लू के थपेड़ों से,

मानव मन भी रहा काँप

ऐसे में निर्विकार खड़े तुम

हे अमलतास।


मनमोहक ये पुष्प-गुच्छ तुम्हारे,

दे रहे संदेश जग में,

जब तपता स्वर्ण अंगारों में,

और निखरता रंग में,

सोने सी चमक बिखेर रहे तुम

हे अमलतास।

गंध-हीन पुष्प पाकर भी,

रहते सदा मुसकाते,

एक समूह में देखो कैसे,

गजरे से सज जाते,

रहते सदा खिले-खिले तुम

हे अमलतास

हुए श्रम से बेहाल पथिक,

छाँव तुम्हारी पाएँ,

पंछी भी तनिक सुस्ताने,

शरण तुम्हारी आयें,

स्वयं कष्ट सहकर राहत देते

हे अमलतास।

बचपन से हम संग-संग खेले,

जवाँ हुए है साथ-साथ,

झर-झर झरते पीले पत्तों सा,

छोड़ न देना मेरा हाथ,

हर स्वर्णिम क्षण के साथी तुम

हे अमलतास।

सुनीता(शानू)

Thursday, June 28, 2007

"ए दोस्त"

"ए दोस्त"

तुम जानते हो,

तुम्हारी हर बात,

मेरी जिन्दगी के,

मायने बदल देती है,

तुम्हारी हर बात,

प्रेरणा होती है,

उस पल,

जब मै अकेले में,

सिसक रही होती हूँ...

जिन्दगी से हार कर,

मै जानती हूँ,

उन विषम परिस्थितीयों में,

तुम कुछ भी नही कर सकते,

मेरे लिये,

और यह भी कि,

सहना ही पड़ेगा मुझको यह सब,

अकेले,

मगर फ़िर भी,

मुझे चाहत रहती है,

सदैव,

तुम्हारी उपस्थिती की,

तुम्हारी मौजूदगी की,

तुम्हारे होने का यह

"अहसास"

मुझमे चाहत भर देता है,

जीने की

और रास्ता बनाता है,

उन कठिन परिस्थितियों से,

उभर आने का,

सभंल जाने का...

Tuesday, June 26, 2007

दर्द का रिश्ता

NARAD:Hindi Blog Aggregator






तेरा मेरा रिश्ता,
लगता है जैसे...
है दर्द का रिश्ता,
हर खुशी में शामिल होते है,
दोस्त सभी
परन्तु
तू नहीं होता,
एक कोने में बैठा,
निर्विकार
सौम्य
मुझे अपलक निहारता
और
बॉट जोहता
कि
मै पुकारूँ नाम तेरा...
मगर
मै भूल जाती हूँ,
उस एक पल की खुशी में,
तेरे सभी उपकार,
जो तूने मुझ-पर किये थे,
और तू भी चुप बैठा
सब देखता है,
आखिर कब तक
रखेगा अपने प्रिय से दूरी,
"अवहेलना"
किसे बर्दाश्त होती है,
फ़िर एक दिन,
अचानक
आकर्षित करता है,
अहसास दिलाता है,
मुझे
अपनी मौजू़दगी का,
एक हल्की सी
ठोकर खाकर
मै
पुकारती हूँ जब नाम तेरा,
हे भगवान!
और तू मुस्कुराता है,
है ना तेरा मेरा रिश्ता...
लगता है जैसे,
दर्द का रिश्ता...

सुनीता(शानू)

Saturday, June 9, 2007

पतंग की डोर


एक डोर से बँधी मैं,
पतंग बन गई
दूर-बहुत-दूर...
आकाश की ऊँचाइयों को नापने,
सपनों की दुनिया में,
उड़ती रही...
इस ओर कभी उस ओर
कभी डगमगाई कभी सम्भली
फ़िर उड़ी
एक नई आशा के साथ,
इस बार पार कर ही लूँगी
वृहत् आकाश
पा ही लूँगी मेरा सपना
मगर तभी,
झटका सा लगा...
एक अन्जानी आशंका,
मुड़कर देखा
वो डोर जिससे बंधी थी
वो डोर जो मजबूत थी
बिलकुल मेरे
उसूलों
मेरे दायरों की तरह
फ़िर सोचा
तोड़ दूँ इस डोर को
आख़िर कब तक
बंधी रहूँगी
इन बेड़ियों में
जो उड़ने से रोकती हैं
कि सहसा
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना संतुलन खो बैठी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर, कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
सभी क्रूर हाथों ने
कराह आई
काश! डोर से बंधी होती
किसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ

सुनीता चोटिया (शानू)

Saturday, June 2, 2007

कन्यादान





















इतिहास ने फ़िर धकेलकर,

कटघरे में ला खड़ा किया...

अनुत्तरित प्रश्नो को लेकर,

आक्षेप समाज पर किया॥

कन्यादान एक महादान है,

बस कथन यही एक सुना...

धन पराया कह-कह कर,

नारी अस्तित्व का दमन सुना॥

गाय, भैस, बकरी है कोई,

या वस्तु जो दान किया...

अपमानित हर बार हुई,

हर जन्म में कन्यादान किया॥

क्या आशय है इस दान का,

प्रत्यक्ष कोई तो कर जाये,

जगनिर्मात्री ही क्यूँकर,

वस्तु दान की कहलाये॥

जीवन-भर की जमा-पूँजी को,

क्यों पराया आज किया...

लाड़-प्यार से पाला जिसको,

दान-पात्र में डाल दिया॥

बरसों बीत गये इस उलझन में,

न कोई सुलझा पाये..

नारी है सहनिर्मात्री समाज की,

क्यूँ ये समझ ना आये॥

हर पीडा़ सह-कर जिसने ,

नव-जीवन निर्माण किया,

आज उसी को दान कर रहे,

जिसने जीवन दान दिया॥

सुनीता(शानू)


Sunday, May 13, 2007

मेरी माँ


मेरी माँ

माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यूँ होती है॥


जब नन्हे-नन्हे नाजु़क हाथों से,
तुम मुझे छूते थे...
कोमल-कोमल बाहों का झूला,
बना लटकते थे...
मै हरपल टकटकी लगाए,
तुम्हें निहारा करती थी...


उन आँखों में मेरा बचपन,
तस्वीर माँ की होती थी,
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥


जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
कानों में कहते थे,
नटखट मासूम अदाओं से,
तंग मुझे जब करते थे...
पकड़ के आँचल के साये,
तुम्हें छुपाया करती थी...


उस फ़ैले आँचल में भी,
यादें माँ की होती थी...
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥


देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
अपने कद से ऊँचे होते,
छोड़ हाथ मेरा जब तुम भी
चले कदम बढ़ाते यों,
हो खुशी से पागल मै,
तुम्हे पुकारा करती थी,



कानों में तब माँ की बातें,
पल-पल गूँजा करती थी...
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥



आज चले जब मुझे छोड़,
झर-झर आँसू बहते हैं,
रहे सलामत मेरे बच्चे,
हर-पल ये ही कहते हैं,
फ़ूले-फ़ले खुश रहे सदा,
यही दुआएँ करती हूँ...



मेरी हर दुआ में शामिल,
दुआएँ माँ की होती हैं,...
माँ बनकर ये जाना मैने,
माँ की ममता क्या होती है॥


सुनीता(शानू)

Friday, May 4, 2007

हे श्याम सखा

















मन व्यथित जब ढूँढ रहा था,
निज शाम-सवेरे दर तेरा,
क्यूँ आड़े-तिरछे चित्र बना,
दिगभ्रमित किया ओ श्याम-सखा...

बाँध हृदय को प्रेम-पाश में,
हुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खड़े हो श्याम-सखा...

तन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
मन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...

हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
आशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द-जाल मे ओ श्याम-सखा...

मैं वीणा तुम स्वर हो मेरे,
मैं पुष्प तुम सुगंध हो स्वामी,
मन वीणा को झंकृत करके,
कहाँ गये तुम श्याम-सखा...

आज मुझे तुम अंग लगा लो,
विरह-वेदना से मुक्त करो,
कहो कैसे मैं रह पाऊंगी,
तुम बिन बिरहन श्याम-सखा...

सुनीता(शानू)

Wednesday, April 18, 2007

प्रेम-प्रमाण-पत्र

सभी आदरणीय को मेरा नमस्कार,..बहुत दिनो से एक कविता लिखने कि कोशिश कर रही हूँ, मगर ना जाने क्यूँ हर कविता हास्य बन जाती है,अजब तमाशा सा हो गया है,इतनी भाग-दौड़ की ज़िंदगी में भी हास्य जाने कहाँ से आ जाता है,..सोचती हूँ अकेले परेशान होने से अच्छा है अपने मित्रजनों,गुरुजनों को भी थोड़ा हास्य-रस का पान कराया जाए,...

पत्नी बोली आकर पति से,
श्रीमान जी,इधर तो आओ,...
प्रेम बस मुझे करते हो,
प्रमाण-पत्र दिखलाओ...

पति ने कहा, हे प्राण-प्रिये...
ये कैसी बात है बचकानी,
प्रेम बंधन है जनम-जनम का,
इसमे कैसी बेईमानी,...

रूप बदल बोली वो आकर,
हमको मत समझाओ,
करके मीठी बाते हमसे,
हमको मत बहलाओ....

आज पडौ़स के शर्माजी की,
हुई है बडी़ पिटाई,
प्रेम किया पडौ़सन से,
शादी कहीं और रचाई...

जो भी हो तुम आज,
नगर-पालिका जाओ,
मेरे प्रिय प्रेम की खातिर,
प्रमाण-पत्र बनवाओ...

पत्नी-भक्त पतिदेव जी,
चले नगर-पालिका के दफ़्तर,
देख प्रार्थना-पत्र,
हँस दिये सारे अफ़सर...

जन्म-मरण का प्रमाण-पत्र,
सब कोई बनवाये,
प्रेम-प्रमाण-पत्र बनवाने,
पहले मूरख तुम आये...

फ़िर भी चलो नाम बतलाओ,
मेज़ के नीचे से नग़दी सरकाओ,

प्रमाण-पत्र कोई हो,
बन ही जाते है,
इसीलिए तो मैट्रिक पास,
प्रोफ़ेसर कहलाते जाते है,...

देख बहुत हैरान हुए वो,
आये मुँह लटकाकर,
बोले प्रिये नही प्रमाण है,
सुन लो कान लगाकर...

सब कुछ बिकता है दुनिया में,
प्रेम ना खरीदा जाये,
जो पाले इस धन को,
वो प्रमाण-पत्र क्यूँ बनवाये...

फ़िर भी तुमको यकिन नही है,
तो बस इतना बतलाओ,
प्रेम बस मुझे करती हो,
प्रमाण-पत्र दिखलाओ...

सुनीता(शानू)

Monday, April 9, 2007

बेचैनी

प्यार में अक्सर दिल बेचैन होता है,...
यादों में दिलबर के दिल का चैन खोता है...

एक अकुलाहट, बेताबी सी रह्ती है सीने में,
एक झुन्झलाहट,छ्टपटाहट रहती है जीने में,

व्याकुल तन-मन इस कदर अधीर होता है,
यादों में दिलबर के दिल का चैन खोता है...

एक रौला,एक हलचल में,होंठ खुले रह जाते हैं
बिन बोले हि बात अधूरी सी कह जाते हैं

बेचैन निगाहों में आसुँओ का सैलाब होता है,
यादों में दिलबर के दिल का चैन खोता है...

बन्द पिन्जर में पन्छी सा मन फ़ड़फ़ड़ाता है
चलते-चलते राह पथिक सब भूल जाता है,

इन्तजारे,बेताबी में तिलमिलाना भी खूब होता है,
यादों में दिलबर के दिल का चैन खोता है...

सुनिता(शानू)

रे मन तूं फ़िर उङ चला




मन किसी के बाँधे नही बँधा है जो मन को बाँध पाया है वो ही सच्चा साधु है,

रे मन तू बन पखेरू,
जाने कहाँ उड़ जाता है,
आ तनिक विश्राम भी करले,
ठहर नही क्यूँ पाता है,...रे मन तू...
हर रात मुझे तू दिव्य-स्वप्न दे,
जाने कहाँ ले जाता है,
बैठ मेरे ही नैनो के साये,
नीदरी मेरी चुराता है,...रे मन तू...
रे नीड़क तू चँचल क्यूँ है,
कहीं तेरा छोर न पाता है,
कभी इधर तो कभी उधर,
इक डाल पे टिक नही पाता है,...रे मन तू...
रहे सदैव निस्तन्त्र रे मन तू,
चैन नही क्यूँ पाता है,
रे पाखी मति-भ्रम लौट आ,
नीड़ से ही तेरा नाता है,...रे मन तू...
काम,वासना,लोभ,मद में,
भूले क्योंकर जाता है,
स्वप्न सदा ही स्वप्न रहे है,
सच कहाँ छुप पाता है,...रे मन तू...
रे पाखी अब मान भी जा तू,
क्यूँ अपमानित हुआ जाता है,
ये सच है कि सुबह का भूला,
लौट शाम घर आता है,...रे मन तू...

सुनीता(शानू)

Sunday, April 8, 2007

तुम कैसे हो



उषा कि आंखमिचोली से थक कर,
निशा के दामन से लिपट कर,
जब अहसास तुम्हारा होता है...
अविरल बहते आंसू मेरे
मुझसे पुछ्ते हैं
तुम कैसे हो?
श्यामल चादर ओढ बदन पर
,जो चार पहर मिलते हैं,
मेरे मन के ऐक कोने में,
तेरी आहट सुनते हैं...
डर-डर कर सांसे रुक जाती हैं
धड्कन मुझसे कह्ती है
तुम कैसे हो?
तन्हा रात के काले साये पर,
जब कोई पद्चाप उभरती,
खोई-खोई पथराई आखें...
राह तेरी जब तकती हैं
हर करवट पर मेरी आहें
मुझसे पुछती मुझसे पुछ्ती...
तुम कैसे हो?
सुनिता चोटीय़ा(शानू)

बच्चे ऒर उनकी परवरिश

फ़ैशन की मारी है ये दुनिया सारी,
देश भर में फ़ैली रहे चाहे बेकारी।

हमारी सभ्यता,संस्कृति,परम्पराएँ सारी,
सिसक रही है पहन के छः मीटर साड़ी।

आधा मीटर कपडा़ काफ़ी हो गया है,
अच्छा खासा लहंगा मिनी स्कर्ट हो गया है।

किसको दे ताने किस पर लगायें लांछ्न,
खुद हमसे उजड़ गया है आज हमारा आंगन।

न जाने कैसी चली है ये हवा...
फ़ैशन में गिरफ़्तार है हर एक जवां।

ऎश्वर्या जैसी चाल रितिक जैसे बाल,
चाहते है सारे आज माँ के ये लाल।

आज युवा पीढी दिशाहीन हो गई है,
स्वतंत्रता की आड़ में बेलगाम घोडे़ सी दौड़ रही है।

दौलत ऒर शौहरत पाने की चाह में,
खो गये है, नैतिक मूल्य न जाने किस राह में।

आदर संस्कार जो मिले थे विरासत में,
गंवा बैठे है सभी कुछ परिवर्तन की राह में।

माना कि परिवर्तन है प्रकृति का शाश्वत नियम,
परंतु आगे बढने की चाह ने तोङ दिये सारे संयम।

तुलसी,रहीम,गुरुनानक किताबों में दफ़न हो गये है,
पढना लिखना छोड कर सब फ़ैशन शो में चले है।

माँ से मम्मी, पिता से डैड हो गये है,
अच्छे खासे बच्चे भी आजकल मैड हो गये है।

इसके लिये शर्मिंदा है वे सारे लोग,
जो बिगङते बच्चों पर लगाते नही रोक।

अगर माता-पिता की परवरिश हो अच्छी,
तो कैसे बिगङेगी बच्चो की ये उम्र कच्ची।

कुछ नही कर सकते ये सिनेमां-दूरदर्शन,
अगर बच्चो को मिले घर में थोरा सा मार्गदर्शन।

सुनिता (शानू)

हुआ निकम्मा आदमी

क्या कहिए उन इन्सानो से, जिनकी फ़ितरत मक्कारी है…
अपनी ही जेबे भरते रहना, जिनकी पेशेवारी है॥

दोस्ती का जो दम भरते हैं, उम्मीद वफ़ा की करते हैं,
देकर भरोसा अहले वतन को… करते वही गद्दारी है॥

देश के नेता बनते है जो, बात अभिनेता सी करते हैं…
झुठे वादे करते रहना ही, इनकी अदाकारी है॥

भोली-भाली सूरत है इनकी, पर अक्ल बला की रखते है…
हुआ निकम्मा हर वो आदमी, जिसकी मदद ये करते हैं॥

अंतिम सत्य