Monday, April 9, 2007
रे मन तूं फ़िर उङ चला
मन किसी के बाँधे नही बँधा है जो मन को बाँध पाया है वो ही सच्चा साधु है,
रे मन तू बन पखेरू,
जाने कहाँ उड़ जाता है,
आ तनिक विश्राम भी करले,
ठहर नही क्यूँ पाता है,...रे मन तू...
हर रात मुझे तू दिव्य-स्वप्न दे,
जाने कहाँ ले जाता है,
बैठ मेरे ही नैनो के साये,
नीदरी मेरी चुराता है,...रे मन तू...
रे नीड़क तू चँचल क्यूँ है,
कहीं तेरा छोर न पाता है,
कभी इधर तो कभी उधर,
इक डाल पे टिक नही पाता है,...रे मन तू...
रहे सदैव निस्तन्त्र रे मन तू,
चैन नही क्यूँ पाता है,
रे पाखी मति-भ्रम लौट आ,
नीड़ से ही तेरा नाता है,...रे मन तू...
काम,वासना,लोभ,मद में,
भूले क्योंकर जाता है,
स्वप्न सदा ही स्वप्न रहे है,
सच कहाँ छुप पाता है,...रे मन तू...
रे पाखी अब मान भी जा तू,
क्यूँ अपमानित हुआ जाता है,
ये सच है कि सुबह का भूला,
लौट शाम घर आता है,...रे मन तू...
सुनीता(शानू)
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सबसे पहले आप सभी को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनायें... कुछ हॉस्य हो जाये... हमने कहा, जानेमन हैप्पी न्यू इयर हँसकर बोले वो सेम टू यू माई डिय...
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एक छोटा सा शहर जबलपुर... क्या कहने!!! न न न लगता है हमे अपने शब्द वापिस लेने होंगे वरना छोटा कहे जाने पर जबलपुर वाले हमसे खफ़ा हो ही जायेंगे....
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बहुत बढ़िया. अच्छी रचना. बधाई
ReplyDeleteसुनीताजी
ReplyDeleteअच्छी रचना है. लिखती रहें
सुनीता जी,
ReplyDeleteमन ही सभी अच्छाइयों और बुराइयों की जड़ है। काव्य-रूप में उसकी महिमा पढ़कर मज़ा आया। अब आपकी कविता नारद पर भी दिख रही है।
अच्छी रचना सुनीता जी।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
समीर जी,राकेश जी,संजय जी,सनजीत जी आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद कि आपको मेरी रचनाए पसन्द आई,..आशा करती हूँ कि हमेशा आपका सहयोग बना रहेगा,...
ReplyDeleteसुनीता(शानू)
रे पाखी अब मान भी जा तू,
ReplyDeleteक्यूँ अपमानित हुआ जाता है,
ये सच है कि सुबह का भूला,
लौट शाम घर आता है,...रे मन तू...
सुनीता जी,
बहुत अच्छी लगी आप की यह रचना...बधाई
सुनीताजी अच्छी रचना है बधाई......
ReplyDeleteस्वप्न सदा ही स्वप्न रहे है,
ReplyDeleteसच कहाँ छुप पाता है,...रे मन तू...
रे पाखी अब मान भी जा तू,
क्यूँ अपमानित हुआ जाता है,
ये सच है कि सुबह का भूला,
लौट शाम घर आता है,...रे मन तू...
bahut shudnar rachana hai yah aapki ....
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteअच्छी रचना
सुनीता जी
बधाई
सुन्दर शब्द,सुन्दर रचना
ReplyDeleteबधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
रोटर के पोजिटिव और नेगेटिव ध्रुवों के चक्र के मध्य स्टेटर पर फ्लक्स से ही विद्युत उर्जा बनती है। देव-दानव मिलकर समुद्र मंथन से ही अमृत और हलाहल निकलते हैं। नकारात्मक और सकारात्मक के बीच डाँवाडोल होता मन, तभी चेतनता अर्थात् जीवन है, थम गए तो कुछ नहीं...
ReplyDeleteस्वप्न सदा ही स्वप्न रहे है,
ReplyDeleteसच कहाँ छुप पाता है,...रे मन तू...
रे पाखी अब मान भी जा तू,
क्यूँ अपमानित हुआ जाता है,
ये सच है कि सुबह का भूला,
लौट शाम घर आता है,...रे मन तू...
खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
हर रात मुझे तू दिव्य-स्वप्न दे,
ReplyDeleteजाने कहाँ ले जाता है,
बैठ मेरे ही नैनो के साये,
नीदरी मेरी चुराता है,...रे मन तू...
मान सच ही बड़ा चंचल होता है ...अच्छी प्रस्तुति
मन कि चंचलता के कारण ही तो सब यह व्यापार चल रहे हैं...दुनिया के.
ReplyDeleteसुन्दर रचना.
बेहतरीन कविता।
ReplyDeleteसादर
सही कहा जिसने मन को बांध लिया वो ही सच्चा साधु है।
ReplyDeleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग पर 'शुक्रवार' १२ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteमन कितना चंचल होता है,संग अपने सीमाओं से परे ना जाने कहां कहां लिए फिरता है.. बहुत ही प्रभावशाली रचना .. बधाई आपको।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .
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