चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Monday, November 2, 2009

आ गई कुछ यादें चुपके से...

यूँ हीं आई जब याद बात कोई तो कागज़ पर कलम फ़िर चल पड़ी....





















आधी बात कही थी तुमने


और आधी मैने भी जोड़ी

तब जाकर बनी तस्वीर

सच्ची-झूठी थोड़ी-थोड़ी

नटखट सी बातों के पीछे

दुनिया भर का प्यार छुपा

मुस्काती आँखो ने भी

जाने कितने स्वप्न दिखा

लूटा था भोला-सा बचपन

और मिला जब

पहला-पहला खत तुम्हारा

तुड़ा-मुड़ा, कुछ भीगा-भागा

भोर के स्वप्न सा

आधा सोया, आधा जागा

कैसे तुमने ओ लुटेरे

दिल को चुराया चुपके से

न दस्तक न आहट ही

दिल में मचाया शोर

चुपके से...



सुनीता शानू

Wednesday, October 14, 2009

आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं

 आप सभी के आशीर्वाद से मेरे पति बिलकुल स्वस्थ हैं।जिंदगी के ऎसे दुखद समय में जब सब साथ छोड़ देते हैं आप सब की दुआयें मेरे साथ ढाल बन कर डटी रही ।आज वे बिलकुल स्वस्थ है और घर लौट आये हैं। आप सभी की दुआओ और माँ दुर्गा के आशीर्वाद का फ़ल ही है कि हम आप सभी के साथ दीपावली धूम-धाम से मना पायेंगे।



आप सभी को सपरिवार दीपावली की शुभकामनाएं।

सुनीता शानू

Tuesday, August 18, 2009

मासूमियत के हनन की तस्वीर





उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...


कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते

छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर
उत्पीड़न से मासूमियत के हनन की तस्वीर


मगर फ़िर भी
यन्त्रचालित सा
हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...

एक के ऊपर एक करीने से जमा
जूठे बर्तन उठाते उसके हाथ
नही देते थे गवाही उसकी उम्र की
मासूम अबोध आँखों को घेरे
स्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे
कि सबको खिलाने वाले उसके ये हाथ
जरूरी नही की भरपेट खिला पायेंगे
उसी को....



सुनीता शानू

Saturday, July 18, 2009

वो सुन न सके



घूँघट की आड़ से,
आँसुओं की धार में,
पलके छुकाये
वो कहती रही
मगर....
वो सुन न सके

दीवारें सिसकती रहीं
कालीन भीगते रहे
कातर निगाहों से उन्हे
तकते रहे
मगर...
फ़िर भी वो सुन न सके

एक वही थी जो उन्हे
कह सकती थी
बहुत कुछ
मगर...
घर में जोर से बोलने का हक
सिर्फ़ उन्ही को था...

दिन पर दिन
आसुँओ से तरबतर
दीवारे दरक गई
ऒ कालीन फ़ट गये
सब्र का दामन छूटा,
घूँघट हटा, पलके उठी
वो चिल्लाई
मगर...
अब बाबूजी ऊँचा सुनते हैं....


सुनीता शानू

Monday, March 9, 2009

होली मुबारक हो



ओढ़ चुनर सतरंगी
जो बदला रंग धरती का
नीला हठीला आसमां भी
अचानक हो गया रंगीन
कि आज होली है...


चाँदी से उजले मतवाले बादल
ज्यौं बिनौलों से गुथे हुए
चमकीले रूई के फ़ूल
कि अभी-अभी
निकल भागी है उजली कपास
कि आज होली है...


दूर कहीं कलरव करती
चली परिन्दों की बरात
बजी बाँस में शहनाई सी
बह चली महकती
रंगीन पुरवाई
कि आज होली है...


और कहीं छाई है लाली
जैसे गोरी का सिन्दुरी रूप
कहीं सरसों के बागानों सी
चिलचिलाती धूप
खिलखिलाई
कि आज होली है...


पूरब ने पश्चिम में फ़ेंका
एक दहकता लाल गुब्बारा
चोट लगी पर काम तो आया
ढलता सूरज मुस्काया
हर पल जीवन हो सतरंगी
कि आज होली है...


सुनीता शानू

अंतिम सत्य