चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Monday, December 30, 2013

कसम



कसम

कसम खाई थी दोनों ने,
एक ने अल्लाह की-
एक ने भगवान की-
दोनों ही डरते थे,
अल्लाह से भगवान से
मगर...
उससे भी अधिक डर था उन्हें
खुद के झूठे हो जाने का,
उस पाक परवर दिगार से-
मुआफ़ी माँग ली जायेगी
कभी भी
अकेले में॥

Thursday, December 26, 2013

तेरी किस्मत बाबू

कल बड़े दिन की खुशी में हम भूल गये उन सड़क किनारे के बच्चों को जिनके आगे से न जाने कितने सांता गाड़ियों में आये और रेड लाईट से होकर गुजर गये। उसी एक वाकये पर यह कविता लिखी है...देखिये जरा...




तेरी किस्मत बाबू
थोड़ा सा दे दो..
मेरी क्रिसमस...
नही… तेरी किस्मत
नही बच्ची कहो मेरी क्रिसमस
मगर कैसे कहे वो मेरी क्रिसमस
सान्ता आया था
गाड़ी में बैठ कर
कभी इस नेता के घर
कभी उस अभिनेता के घर
गाड़ी के शीशे पर गंदले हाथों से
थाप देती रही
मांगती रही वो बच्ची
कहती रही
बाबू आज तेरी किस्मत है
मुझे भी दे दो थोड़ा सा कुछ
मगर फ़ुर्सत नही
उस सांता बने बाबू को
इतना भरा था थोली में
लेकिन नही आता था नज़र
थोड़ा सा
झोली के किसी कौने में भी...:(

सुनीता शानू

Thursday, September 26, 2013

खामोशी से बरस गया

आज बहुत तेज़ बारीश आई बस यूँही लिख डाला एक पैगाम  उस आवारा बादल के नाम जो एक हवा के झोंके से कहीं भी बरस जाता है...


गुगल से साभार





बहुत दिनों से
घुटन सी
घिर आई थी
कली-कली भी
कुम्हलाई थी
प्यास कोई एक
भटक रही थी
धरती सी
बिन पानी के तड़प  रही थी
रुकी-रुकी सी सांसों ने
आधी-अधूरी बातों ने
जाने क्या समझाया
कि
न वादा तोड़ा न साथ चला
बस खामोशी से बरस गया...
शानू

Saturday, September 21, 2013

फिर आई एक याद पुरानी...

ये वो कविता है जिसे हिन्दी के अक्षरों में लिखने में बहुत समय लग गया था। मै देवनागरी से परीचित नही थी और बहुत मुश्किल से सुषा फोंट्स का जुगाड़ कर लिख पाई थी। इसके बाद कृति देव और अब बराहा देवनागरी :) बहुत ही आसान हो गया है हिन्दी लिखना...बहुता पुरानी कविता है जिसे पुराने ई कविता ग्रुप के लोगों ने पढ़ा और सराहा भी था... तथा कमिया भी बताई थी।



Ref :-102_sunita         DATE_05.08.2006

ना जाने क्या हो जाता है ...

ना जाने क्या हो जाता है...आती है जब याद तेरी...
दिल खो जाता है... जाने क्या हो जाता है...

तनहा-तनहा दिन कटते हैं, तनहा-तनहा राते है ;
तनहा-तनहा मन है मेरा... तनहाई मे बातें हैं ।
तेरे आने की खुशी में...जाने कब वक्त कट जाता है
जाने क्या हो जाता है,

जबसे तुझसे लगन लगी है...एक तस्वीर बसी है मन में,
रातों में तेरे सपने हैं...एक हुक जगी है तन में।
तुझको पाने की चाहत में...दिल बाग-बाग हो जाता है
जाने क्या हो जाता है...

कल मुलाकात हुई तुमसे तो...दिल को कोई होश नही है
तन-मन मेरा  ऎसे डोले,..आंखें भी खामोश नही हैं।
बेचैनी बड. जाने से...दिल को रोग लग जाता है।
जाने क्या हो जाता है...

...गर है मरहम कोई तो...इस दिल को आज दवा देदो,
मायूस ना हो जाये ...दिल में थोङी जगह देदों।
मिल जाने दो दिल को दिल से...दिल आज मेहरबां हो जाता है,
ना जाने क्या हो जाता है...

सुनीता चोटिया   
 (सुनीता शानू)


Tuesday, September 10, 2013

कहानी की कविता

दोस्तों एक कहानी लिखी है "एक अकेली" कहानी के भीतर की कविता यहाँ प्रस्तुत है ये खत कहानी की नायिका सौम्या ने अपने प्रेमी शेखर को लिखा था उसी खत का थोड़ा सा अंश प्रस्तुत है...

आज पहली बार चली हूँ दो कदम

तुम्हारे बिन

आज पहली बार कुछ किया है मैने

तुमसे कहे बिन

तुम्हारी नाराजगी या तुम्हारी हाँ की

परवाह किये बगैर

प्यार में हद से ज्यादा परवाह कहीं

बंदिशे तो नहीं...

शायद आज तुम भी सोच पाओगे जीना

मेरे बिन

पहल मैने कर दी है और शुरुआत भी

मेरी ही थी....
सुनीता शानू

Monday, July 8, 2013

मन पखेरु के विमोचन पर रुठे साथी...

मन पखेरु का विमोचन न हुआ बीरबल की खिचड़ी बन गई जिसे सुनीता जी पकाये जा रही हैं...पकाये जा रही हैं। क्यों यही सोच रहे थे न आप?  :)  देखा आखिर मैने आपके मन की बात भी पढ़ ही ली है। खैर खाने को तो तैयार हैं न खिचड़ी... 

तो दोस्तों बात शुरु होती है तब से जब मेरे दिल में कविताओं को एकत्र करने का कोई इरादा ही नही था। दोस्तों की कविताओं की किताबें देखना पढ़ना अच्छा लगता था। 
लेकिन कुछ दोस्तों की मेहनत और मुझसे अपेक्षायें मेरे इस काव्य-संग्रह की वजह बन गई। ये संग्रह उन सभी दोस्तों का ऋणी है।

मैने पहला विमोचन पिलानी में किया था। दूसरा दिल्ली के कॉंस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हॉल में हुआ। जाने कितनी उम्मीदें आशाएं जुड़ी थी मेरे इस कार्यक्रम से बता नही सकती। सभी दोस्त इस तरह रुठे थे जैसे बेटे की शादी में जाने से पहले बराती रुठ जायें। जो दोस्त लम्बी-लम्बी साँसे भर के दोस्ती का दम भरते थे। आज उन्हे शिकायत थी कि मैने फ़ोन क्यों नही किया।फ़ेसबुक पर ही मैसेज़ दे दिया।
अच्छा है न ऎसे समय पर ही पता चलता है। 
शिकायतें तो बहुत सारी है... लम्बी लिस्ट है.नाम गिगने लगी न तो बस...




मंच पर काव्य-पाठ तो बीसियों बार किया था। हर बार सामने बैठे दर्शकों की भीड ही देखी थी किन्तु ये भीड़ जो नज़र आ रही थी उन तमाम दोस्तों की थी जो ये जानते थे कि उनके होने का मेरी ज़िंदगी में बहुत  महत्व है जो उन्हें मेरे गीत में मेरी आवाज़ में नज़र भी आया था। कई बार हम कुछ लोगों को बहुत दूर समझते हैं लेकिन वक्त आने पर वही सबसे पास नज़र आते हैं। प्रभात प्रकाशन से पियुष अग्रवाल  तथा अयन प्रकाशन से भोपाल सूदद ्ने आकर ये साबित भी कर दिया।



इस प्रोग्राम को सफ़ल बनाने में पवन जी ने( मेरे पति) पूरी मेहनत की थी। मुझे लगता था कि जैसे ये उन्हीं का सपना है जो आज साकार होने जा रहा था। भीड़ में कुछ जानी-मानी हस्तियाँ भी थी जिनका आना सौभाग्य की बात थी। कुछ लोग बस विमोचन तक रुके थे भोजन नही कर पाये। परंतु उनका आना किसी उपलब्धि से कम नही था।  ... तो दोस्तों मन पखेरु उड़ चला का दूसरा विमोचन भी बहुत ही खूबसूरत हुआ। इसका श्रेय शैलेश को भी जाता है जो मेरे और पवन जी से एक ऎसे स्नेह बंधन में बधा है जिसका टूटना मुश्किल है।

मेरी खुशी में शामिल थे प्रताप सोमवंशी जी पत्नी तथा बच्चे को ही नही अपने साथ लाये थे ढेर सारी शुभकामनाएं। आनन्द कृष्ण जी तथा ललित भाई मेरे घर ही ठहरे थे। उनका आना मेरे घर परिवार को अपना बना लेना था। दूर से आने वालों में सिध्देश्वर जी भी थे।... आप जानते हैं मै सिध्देश्वर जी को बहुत गुसैल समझा करती थी। लेकिन उनसे दोस्ती होना सौभाग्य की बात है।

नन्हा सा अमन जिसे मै बहुत सालों से जानती हूँ आया और अपनी मघुर आवाज़ में गीत भी सुनाया। आने वालों में प्यारी सखी अंजु भी थी। मुझे लगता नही था वो आयेगी मगर वो आई और गई भी सबसे आखिर में।

दिल्ली,फ़रीदाबाद,नोयडा से आने वालों की एक लम्बी लिस्ट थी, नाम लेते लेते सुबह से शाम हो जायेगी। मै बहुत खुश हूँ सचमुच मै अपने दोस्तों के साथ बहुत खुश हूँ जिन्होने मेरा कार्यक्रम अपना समझा और मेरी दोस्ती को दिल में स्थान दिया।






मैत्रेयी जी ने कहा कि हर लेखक पहले कवि होता है बाद में कुछ और होता है। दिल को सुकून मिला सुन कर वरना तो घर में कवि का होना बहुत अपशकुन की बात समझा जाता है भैया। कवि को देखते ही लोग भाग खड़े होते हैं। जैसे भूत लिपट गया हो। :)



अब सोच रहें है कि हम सड़क पर बैठे क्या कर रहे हैं... अजी अगला विमोचन कहाँ होगा बस यही योजना बना रहे हैं। अब रोज-रोज किताब थोड़े ही लिखते रहेंगें। हाँ पार्टी-शार्टी होती रहनी चाहिये।

 पोस्ट लिखते-लिखते दो महिने हो गये। आज पोस्ट करने का मतलब समझते हैं न आप। मतलब की समय बीत जाये तो बीत जाये। उम्र बीत जाये तो जाये... मन बूढा नही होना चाहिये... मन पखेरु लो फ़िर उड़ चला...

राम-राम जी की...
सुनीता शानू

Sunday, May 26, 2013

मन पखेरु उड़ चला फिर काव्य-संग्रह के लोकार्पण पर एक विशेष रिपोर्ट... (1)


“मन पखेरु उड़ चला फिर” मेरी इकलौती पुस्तक का एक बार नही दो बार विमोचन हुआ। बहुत ही निराली बात है दोस्तों लेकिन मुझ जैसे निराले लोगों से आप उम्मीद कर ही क्या सकते थे?
 

अब बात आती है बहुत सारी बातों की कि रिपोर्ट छप गई समीक्षाऎं हो गई। यानि की जो होना था हो चुका अब खबर बासी हुई। तो मन पखेरु पर ताज़ा क्यों लगी। तो भैया हमें तो आदत है बाल की खाल उधेड़ने की जब तक सारी बातें साफ़ न हो जाये चैन कैसे आये...
  ये 27 अप्रैल का दिन था जब राजस्थान पिलानी में मन पखेरु का लोकार्पण हुआ। आदरणीय गुरुजी केसरी कान्त जी शर्मा के द्वारा दीप प्रज्जवलन के साथ ही कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ।
 
 
पिलानी में लोकार्पण करवाने का एक ही मकसद था मै पिलानी में जन्मी हूँ मेरे माता-पिता पिलानी में है मेरे गुरु श्री केसरी कान्त जी शर्मा भी पिलानी के पास एक जगह है मंडावा वही रहते हैं जो राजस्थान के एक बहुत बड़े लेखक है जिन्होनें अनेक किताबें लिखी है राजस्थानी में अनुवाद किये हैं।
 

दोस्तों इस दिन मेरे माता-पिता की शादी की तरेपन्नवी सालगिरह भी मनाई गई थी। मेरे लिये ये क्षण किसी उत्सव से कम नही थे। जब आप मेरी पुस्तक मन पखेरु पढेंगे तो जान पायेंगे मेरे माता-पिता की मेरे अपनों की मेरी ज़िंदगी में क्या भूमिका रही है। खैर इस आयोजन में मन पखेरु पर सभी जाने-माने विद्वजनों ने अपनी बात रखी। इस अवसर पर मैने अपनी सबसे प्रथम क्लास टीचर तारा नौवाल मैडम को शाल भेँट कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया।
 

अन्त में काव्य-गौष्ठी तथा भोजन के साथ ही कार्यक्रम का समापन कर दिया गया।
 

अब बात आती है नया क्या था, नया था... पिलानी में कार्यक्रम करना  जहां से बाईस साल पहले मै दिल्ली आ गई थी|  वहाँ कार्यक्रम कैसे और किस प्रकार से किया जायेगा। पिलानी में सभी मुझे लेखिका तथा कवयित्री सुनीता शानू के नाम से जानते थे। कुछ लोग ही जानते थे कि मै पिलानी  की ही बेटी हूँ और उस दिन सबके सामने ये बात उजागर भी हो गई। पिलानी  में एक इंसान ने शुरु से आखिर तक बहुत मदद की  वो है संजय शर्मा... मरुपन्ना का सम्पादक।
 
 
 लेकिन उसमें एक खास  बात  है कि वह  कब किस समय किस बात पर नाराज हो जाये मालूम नही। तो दोस्तों मुझसे भी वो ऎसे समय पर नाराज़ हो गया जब प्रोग्राम में कुछ ही दिन रह गये थे।  मुझे समझ नही आया कि क्या किया जाये। प्रोग्राम तो होना ही था मगर वो इंसान जो शुरु से साथ था अचानक गुस्सा हो जाये और प्रोग्राम में नज़र ही न आये अज़ीब सी बात थी। सबसे बड़ी बात मै रिश्ते में उसकी मामी भी लगती हूँ भला कैसे छोड़ देती उसे उसकी जिद के साथ। सो जाकर उसे मनाया और सचमुच वो भी बच्चों की तरह मान गया। रिश्ते कितने प्यारे अपने से होते हैं जब हम ज़िंदगी में रिश्तों की अहमियत को समझते हैं।


ऎसे ही दोस्ती के रिश्ते में बँधे पिलानी तक चले आये मेरे कुछ दोस्त जिनमें सबसे पहले नम्बर पर पहुंचे संतोष त्रिवेदी जी ( जिन्हें बात-बात पर महाराज कहने की आदत है)
 
 
इसके साथ ही शैलेश , पवन जी, और बच्चे भी पहुंच गये।
 
 
 
और अंत में ज्योतिर्मय जी भी अपना आशीर्वाद देनें पहुंच गये।
 
 
 
 छोटे से शहर पिलानी में कवियों और श्रोताओं का जमावड़ा इस कदर हुआ दोस्तों की भीड देख कर आँखें भर आई। मै दिल से शुक्रगुजार हूँ अपनी पिलानी की जिसने मन पखेरुं को उड़ने के लिये पख दिये और उसकी उड़ान को अपना आशीर्वाद दिया।

इस तरह मन पखेरु के विमोचन का पहला पड़ाव खत्म हुआ...
 
इंतजार कीजिये अगले पड़ाव का...
शुभ-रात्री
शानू

 

Saturday, March 30, 2013

जवाब भी तो मेरे अनुरुप होंगें...



ऊँ नमः शिवाय...

मेरे और तुम्हारे बीच
एक मौन पसरा हुआ है
अनन्तकाल से
मगर फिर भी 
मै समझती हूँ, तुम्हारे इस
मौन की परिभाषा
मेरे हर सवाल पर-
तुम मौन ही रहते हो-
क्योंकि तुम जानते हो-
जवाब भी तो-
मुझे मेरे अनुरुप ही चाहिये

तुम कुछ पूछते नही
मगर मै सब बताती हूँ तुम्हें
मुझे पता है तुम्हारी ये चुप्पी भी
मेरी हाँ मे हाँ ही होगी
मगर फिर भी
कुछ तो होगा अन्त
इस चुप्पी का
कब तुम्हारे पथरीले होंठ
हिलेंगे और तुम बाहर आओगे
इस गहरे मौन से
अनन्तकाल से बस मै ही
कर रही हूँ सवालों पर सवाल
और जवाब?
बस मेरे ही होते हैं...

शानू

Tuesday, March 26, 2013

हुये तुम मेरे मै तुम्हारी होली…


होली मुबारक हो आप सभी को...

रंगों की होली सजायें रगोंली
हुये तुम मेरे मै तुम्हारी होली…

आओ मिटा दें दूरियाँ दिलों से
ज़िंदगी सजा दें आज रंगों से
भुला दें गिले-शिकवे सारे औ’
रंगों की होली सजायें रगोंली
हुये तुम मेरे मै तुम्हारी होली…

ज़िंदगी की बाज़ी लगा दी मगर
न हम हारे न तुम जीत पाये
चलो आज कहना ये मेरा मानों
छोड़ के नफ़रतों की दुनियाँ औ’
खुशी के रंगों से सजायें रंगोली
हुये तुम मेरे मै तुम्हारी होली…

Friday, March 1, 2013

उसने कहा तो लिख डाला...

कहोगे कि कोई नया संग्रह बन रहा है या कोई बात है? किसी से प्यार का चक्कर तो नही। अब बताओ  ये तमाम बातें होंगी क्या तभी कविता बनेगी। ये फ़ेसबुक भी बड़ी अज़ीब जगह है दोस्तों... न लिखने दे न पढ़े आखिर कोई करे तो क्या करे :(

दो चार ठौ कविता बन पड़ी सो है सो यहीं पर ठेले जा रहे हैं... :)



उसने कहा तुम्हारी हँसी में 
मुझे दर्द सा क्यों लगता है?
क्या बेवजह कोई 
इतना हँसता है?
मुझे भी लगा किस बात पर 
हँस रही हूँ मैं!
कि राज़ दिल के सबको
कह रही हूँ मै--
किसी की याद हद से ज्यादा आने लगे
कोई अंदर से गहरा सताने लगे
तो ऎ दिल
कोशिश कर
खुद को समझाने की
कोशिश कर
खुद को हँसाने की...
शानू( बस यूँही) एक उदास शाम... मै... और..मेरी चाय :)





(२)


बस यही परिणति है 

किसी के मासूम एहसासों की
कि सिसकी बन के 
शीशे सी पिघलती रही याद सीनें में
और कहीं दूर उसे
खबर तक न हो पाई...

(३)


जमीं पर ही चलते देखा है अभी तक
मेरे पैरो के पँखों को तुमने देखा नही है
ऎ आसमाँ इतना गुरुर भी अच्छा नही
मेरे हौसलों की उड़ान अभी बाकी है...


शानू

Saturday, February 23, 2013

व्यंग्य नरक में डिस्काऊंट ऑफ़र का कविता रुप


सुप्रभात मित्रों... सुबह-सुबह माथा खराब हो उससे पहले चलिये कुछ हॉस्य हो जाये... :)

सेल की दुकान देखते देखते
एक आदमी 
नरक के दरवाजे आ गया
यमराज को देख घबरा गया
बोला हे महाराज
इतनी जल्दी क्यों मुझे बुलाया
अभी तो मेरा समय नही आया
यमराज बोला 
तुम्हें बुलाया नही गया है
तुम खुद चले आये हो 
लालच मे फ़ँस कर
हमने जो नाइनटी पर्सेंट ऑफ़र का
बोर्ड लगाया
ऎ मानव तूं उसी में फँसा आया
पर हुजूर नरक तो है यातना गृह जैसा
फिर ये ऑफ़र ये डिस्काऊँट कैसा???
यम्रराज झल्लाया
अरे क्या हमे मूर्ख समझ रखा है
तुम रोज अपनी रणनीति बदलते हो
नये-नये ऑफ़र देते हो
और तो और सुना है
आजकल तुहारी जेलो मे
कैदियों को मोबाईल से लेकर एसी तक
सारे सुख मिलते हैं
तुमने चोरो अपराधियों को इतना सम्मान दिया है कि
आजकल वो टी वी पर दिखते हैं 
छोटे चोर हो या बड़े चोर
सब अपना कैरियर बनाते हैं
इसीलिये हमने
ये तरीका अपनाया है
सेल का ऑफ़र दे
तुम्हें बुलाया है
और सोच विचार कर
विशेष फ़ेसिलिटी देने का निश्चय किया है
ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग परिवार सहित
नरक मे आयेऔर 
हमारे नरक का नाम रोशन करें
अच्छा ऎसी बात है
तो क्या ऑफ़र है बताईये
यमराज बोला
जवान आने वाले के साथ
एक के साथ एक फ़्री होगा
रूम विद अकोमोडेशन मिलेगा
फ़ार्म धरती पर भिजवा दिये गये हैं
जो जल्दी भर देगा उसका नम्बर पहला
आदमी फोरन रहने के लिये तैयार हो गया
बोला मै तो शरीफ़ आदमी हूँ सरकार
चोरो के लिये वार्ड अलग बने होंगे न
उन्हे तो आप जरूर यातना ग्रह में डालेंगे
यमराज बोला अरे मानव 
तू सचमुच पक्का बिजनेस मैन है रे
तेरी धरती पर भी
क्या चोरो का मुह काला होता है
क्या अब भी उन्हे गधे पे बिठाया जाता है
आजकल चोर तो वाह वाह करते नजर आते हैं
चोरी करके इनाम पाते है
चोरो के करिश्मे इतने मशहूर हुए हैं
कि चोर सेलिब्रिटी बन जाते हैं
जब तुम्हे चोरो को अपनाने में एतराज नही तो हमें क्यूं होगा
हमने फ़ैसला किया है
धरती के जैसे ही यमराज की जेल
पूरी तरह से सुख सुविधाओं से लैस होगी
ताकि प्रकृति के नियम को न बदले आदमी
समय-समय पर नरक में भी आ जा सके
आदमी खुशी से झूम उठ
पूरे परिवार के साथ स्पेशल डिस्काऊँट पा गया
धरती से दौड़ता हुआ नरक में आ गया 
शानू 
( मेरे व्यंग्य नरक में डिस्काऊंट ऑफ़र का कविता रुप)

Friday, February 22, 2013

मुश्किल होगा ऎ दिल खुद को समझाना...

मेरा बनाया रेखाचित्र (मन पखेरु उड़ चला फिर काव्यसंग्रह से)

कितना मुश्किल है
खुद को समझाना
कि ऎ दिल
खुद से दिल लगाना
उसकी हर बात पर
जो मुस्कुरा देती हूँ
न समझना कि उसे
सचमुच भुला देती हूँ
आंखों की नमी
बता देती है उसे
मेरा रोते-रोते
मुस्कुराना...


जिसको थामे रही
हर पल बांहे मेरी
कितनी दूर तलक ढूँढेंगी
ये निगाहे मेरी
ये सच है कि
हर पल सतायेगा
उसका यूँ
छोड़ के जाना...
जब कभी आयेगी
याद उसे मेरी
ए हवा जरा भी न
दिल दुखाना

हर घड़ी मै ही हूँ
परछाई बन
बस यही राग
तूं उसे सुनाना...
वो हकीकत है
मेरे सपनों की
वो पूँजी है
जीवन भर की
न लूटना 
न समय यूँ
व्यर्थ लुटाना

जो किया है वादा
खुदसे- मुझसे
तुम कभी
भूल न जाना
ये सच है कि
मुश्किल होगा 
ऎ दिल
खुद को समझाना।
शानू

Wednesday, February 20, 2013

ज़िंदगी की खूबसूरत कविता को भरपूर जीने की ख्वाहिश



आनंदकृष्ण जी द्वारा लिखी गई भूमिका आप भी पढ़िये। उनके द्वारा लिखी गई भूमिका पढ़कर मै अपनी कविताओं से परिचित हुई हूँ....आनंदकृष्ण जी खुद एक अच्छे कवि हैं तथा आलोचक भी हैं। उनके द्वारा मेरी कविताओं की समालोचना मेरे लिये सौभाग्य की बात है...
( कविता संग्रह “मन पखेरू उड़ चला फिर” पर केन्द्रित)
कविता बेचैनी से उपजती है। जितनी घनीभूत बेचैनी होगी उतनी सार्थक कविता भी होगी। यह बेचैनी संवेदनशील व्यक्ति को ही हो सकती है, और संवेदनशील होना मनुष्य की पहली और अनिवार्य शर्त है। इसी लिये धूमिल ने कविता को “भाषा में आदमी होने की तमीज़” कहा है। कविता, गहन पीड़ादायक अनुभवों से गुज़र रहे रचनाकार की सृजनात्मक चीत्कार है। इस प्रकार प्रत्येक रचनाकार दृष्टा होता है क्योंकि वेदना की शक्ति दृष्टि देती है। जो यातना में होता है वह दृष्टा हो सकता है (अज्ञेयः शेखरः एक जीवनी)। इस वेदना को अपनी “सेंसिबिलिटी” से जितनी शिद्दत से महसूस किया जायेगा उतनी ही पारदर्शी और दूरदर्शी दृष्टि से संपन्न कविता प्रस्फ़ुटित होगी। सुश्री सुनीता शानू की कविताओं को पढ़ते-गुनते हुए शीतल जल के छींटों-सा ताज़गी भरा अहसास छू-छूकर गुज़रता है। इस जीवंत और स्फ़ूर्त शीतल जल के अंतस में भी गहन पीड़ाएं हैं- पत्थरों से टकराने की पीड़ा, अपने मूलबिंदु से बिछड़ने की पीड़ा, अनजानों के बीच रहने की उत्कंठित पीड़ा, अज्ञात लक्ष्य की ओर बढ़ते जाने की विवश-पीड़ा, किंतु इन सब पीड़ाओं के साथ जीवन देने की, सुख देने की लालसा, पीड़ा के चीत्कार को मधुर गान में परिवर्तित कर देती है। सुनीता जी की सभी कवितायें इन्ही पीड़ाओं के चीत्कारों और जिजीविषा के मधुरतम गान का संतुलित समुच्चय है। ये कवितायें, इसीलिये समकालिक से आगे बढ़ कर सर्वकालिक हो जाती हैं और मानवीय सरोकारों की सशक्त पैरवी करती हैं। इसी क्रम में उनकी “उसने कहा”, ”मैं रूठ पाऊँ, “सुबह का भूला”, “मलाल”, “इंतजार”, “मुखौटे के पीछे”, खबर: दुनिया बदलने की”, “ए कामवाली- !” जैसी कविताएं विशेष दृष्ट्व्य हैं।
सुनीता का रचना संसार बहुत व्यापक है। उनकी कवितायें उनके जैसी ही मुखर है और अपने पाठकों व श्रोताओं से सक्रिय व सीधा संवाद करती हैं । कविताओं की यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति एक ओर उन्हें ऎकान्तिक अवसाद से बचाती है और दूसरी ओर अपनी कहन को बिना किसी लाग-लपेट के अपने पाठकों को सीधा संप्रेषित कर देती है। सुनीता की कविता जीवंतता की, गति की और अजस्र ऊर्जा की दस्तावेज है। इस संग्रह का पहला ही गीत “ मन पखेरु उड़ चला फिर...” इस जीवन्तता की सघनता और गति की दिशा निर्धारित करता है। यह गीत इस संग्रह का शीर्षक गीत है, जिसमें डूबते-उतराते सुनीता की रचना धर्मिता के विविध आयामों का विहगावलोकन किया जा सकता है। इस गीत में “मन पखेरु” जहां एक ओर आसमान की ऊँचाइयाँ नापने को बेचैन है तो वहीं दूसरी ओर हृदय की गहराइयों में दबी मलिनता की ग्रंथियाँ खोलने को आतुर है । एक साथ बहिर्यात्रा और अंतर्यात्रा का ऎसा संगम विरल ही देखने को मिलता है। “पंछी” या “पखेरु” सुनीता का प्रिय प्रतीक है। पंछी या पखेरु; जीवंतता को, गति को, अज्रस ऊर्जा को, जिजीविषा को और उन्मुक्तता और उत्सवप्रियता के विविध बिम्बों को उनकी रचनाओं में रुपायित करता है। इस संग्रह की कुल बारह कविताओं में “पखेरु” ने उड़ान भरी है। ये कविताएं हैं- “मन पखेरु फिर उड़ चला”, “आज होली रे”, “किस पर करूँ विश्वास”,”सुबह का भूला”, “डोर”, “ओढ़ा दी चुनर”, “गीतिका: ये कौन है”, “गीतिका: प्यार में अक्सर”, ”मन पखेरु”, ”प्रेम बंधन”, “मै अपना घर ढूँढती हूँ”, और ”पंछी तुम कैसे गाते हो”। इन कविताओं में सुनीता के पंछियों- पखेरुओं ने जीवन के मौलिक बिम्ब गढ़े हैं। एक सफ़ल, सार्थक और सक्षम प्रतीक की खोज, सुनीता की बहुत बड़ी उपलब्धि है। सुनीता की रचनाओं का मूल स्वर “प्रेम” है। वे प्रेम के विविध आयामों की अनुगायिका हैं। प्रेम को उन्होने व्यष्टि से समष्टि और अणु से ब्रह्माण्ड तक पहुंचाया। ऎहिक और दैविक प्रेम का चित्रण करने में वे बहुत सफ़ल रही हैं। उनके प्रेम का कैनवास बहुत व्यापक है, जिसमें बचपन के घरौंदे, कच्ची इमली, नीम, पीपल, बरगद, अमलतास, से लेकर माँ, पिता, पुत्र, पति और मित्रों को भी बहुत आत्मीयता और निश्छलता के साथ विषय बनाया गया है। प्रकृति के प्रति उनके प्रेम ने “अमलतास” जैसी महत्वपूर्ण कविता दी है, तो प्रेम के आध्यात्मिक और पारलौकिक आयाम ने उन्हें “दर्द का रिश्ता” कविता रचने के लिये प्रेरित किया है। पूरी बेबाकी और ईमानदारी के साथ उन्होने प्रेम के ऎहिक, ऎन्द्रिक और सांसारिक स्थूल स्वरूप पर भी कलम चलाई जिससे “प्रिय बिन जीना कैसा जीना”, “तुम्हारी चाहत”, “श्याम सलोना”, जैसी कविताएं निः सृत हुई। प्रेम का वियोग पक्ष भी उनकी कविताओं में बड़ी समर्थ ध्वनि के साथ गुंजित हुआ है।
प्रस्तुत संग्रह “मन पखेरु उड़ चला फिर” सुनीता शानू का पहला काव्य संग्रह है। इसे पढ़ते हुए यह सुखद आश्चर्य होता है कि यह संग्रह किसी अन्य रचनाकार के पहले संग्रह में आने वाली भाव, भाषा, शिल्प, संयोजन, बिम्ब व प्रतीक विधान, अनुभूति, सम्प्रेषण आदि की बड़ी और गंभीर त्रुटियों से लगभग पूरी तरह से मुक्त है। वास्तव में वे समकालिक दौर की बेहद सतर्क और चिंतनशील रचनाकार हैं। उनकी काव्यधारा में प्रेम की शीतल फुहारें हैं तो समकालीन विद्रूपों के खिलाफ विद्रोह के तीखे तेवर भी दिखाई देते हैं। उनकी सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ सुपरिचित पोलिश कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की याद दिलाती है। शिम्बोर्स्का की भांति सुनीता जी की रचनाओं में बड़ी-बड़ी थोथी व सैद्धान्तिक बातों का अभाव और मर्मस्पर्शी शब्द चित्रों का बाहुल्य है। जो खामोश ज्वालामुखी शिम्बोर्स्का की रचनाओं में धधकता है, उसकी गहरी आँच सुनीता की रचनाओं में भी मिलती है। जहाँ एक ओर शिम्बोर्स्का अपनी कविता “डिस्कवरी” में कहती है-
मै शामिल होने से इंकार करने में विश्वास करती हूँ
मै बर्बाद जीवन में विश्वास करती हूँ
मै कर्म में खर्च हुए समय में विश्वास करती हूँ
मेरी आस्था अडिग
-अंधी और निर्लिप्त।
वहीं सुनीता शानू अपनी कविता “जीना चाहती थी मैं” में पूछती
“दीमक भी पूरा नही चाटती
ज़िंदगी दरख्त की
फिर तुमने क्यों सोच लिया
कि मै वजह बन जाऊँगी
तुम्हारी साँसों की घुटन
तुम्हारी परेशानी की
और तुम्हें तलाश करनी पड़ेगी वजहें
गोरख पांडॆ की डायरी या फिर
परवीन शाकिर के चुप हो जाने की।
ये सच है मैं जीना चाहती थी
तुमसे माँगी थी चंद सांसें-
वो भी उधार।“
सुनीता ने अपनी कविताओं में उस दुनिया को प्रस्तुत किया है जो सामान्य जन की दुनिया है। इस दुनिया मे प्रेम है, संघर्ष है, भूख है, अभाव है और इन सबके साथ आत्मीय उत्सव-धर्मिता है। उनकी कवितायें सामान्य जन के सरोकारों से जुड़े प्रश्न सीधी-सरल भाषा में पूरी सादगी के साथ उठाती हैं। उनकी कविताओं में हर्ष-उल्लास, उम्मीद-हताशा, जीवन, मृत्यु, यथार्थ, संशय, प्रकृति, आस्था जैसे भावों के साथ मानवीय संवेदनाओं का आश्वस्त करता हुआ उष्ण स्पर्श भी है। वे जीवन के जयघोष का उत्सव मनाती हैं किन्तु इस उत्सव में वे अपनी जिम्मेदारियों के प्रति भी पूर्णतः सचेत हैं। उनकी समग्र चिंताएँ मानव-मात्र के लिए “स्त्रीविमर्श” समकालीन वाङमय में महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के रुप में तेजी से उभरा है हालाकिं इसकी जड़ें बहुत गहरे तक और बहुत दूर तक फैली हुई है। एक जागरूक रचनाकार के रुप में सुनीता ने भी स्त्रीविमर्श पर अपने मौलिक तर्कों और मान्यताओं के साथ चिंतन किया है। निष्कर्षतः स्त्री विमर्श पर उनका सुस्पष्ट, सुचिंतित मौलिक दर्शन उनकी कविताओं मे निरायास ही उतर आया है। वे स्त्री के स्त्रीत्व की गरिमा से गौरवान्वित है किंतु स्त्रीविमर्श के नाम पर स्त्री को तमाशा बनाने के खिलाफ हैं। उनके दृष्टिकोण, उनकी कविताओं- “तो फिर प्यार कहाँ हैं”, “तुम ऎसे तो न थे”, “मेरे मालिक”, “डोर”, “चिह्न”, “कन्यादान”, “माँ”, “तुम कैसी हो”, “मै तनहा नही हूँ”, “श्याम सलोना”, “गरीब की बेटी”, “तुम्हारे लिये”, “ऎ कामवाली”, आदि कविताओं में परिलक्षित होता इसी क्रम में मै इस संग्रह की रचना “जन गीत: कोई शिल्पकार यहाँ आएगा” का उल्लेख अलग से तथा विशेष रूप से करना चाहूँगा। यह असाधारण लंबी कविता पूरी मानव सभ्यता के प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान तक के दौरान स्त्रीविमर्श की गहरी पड़ताल करती है और सारे विद्रूपों, विसंगतियों, प्रताड़नाओं और संघर्षों का संयत चित्रण करते हुए नई आस्था और विश्वास स्थापित करती है। इस रचना के लिये केवल यही कहा जा सकता है कि ऎसी रचनाएं “लिखी” नही जाती, “लिख” जाती है। यह कविता संदेश देती है कि हम पूर्वजों की गलतियों को मिटा नही सकते पर किसी न किसी तरीके से उनका प्रायश्चित करके उन्हें हलका अवश्य कर सकते हैं। पारंपरिक स्त्री विमर्श के पक्षधर तथा स्त्रीवादी इस कविता की मान्यताओं और स्थापनाओं से नाइत्तफ़ाकी रख सकते है किंतु इस रचना के सिध्द व्यवहारिक दर्शन को नकारा नही जा सकता। इस संदर्भ में मुझे नथानियल हॉर्थन की कालजयी औपन्यासिक कृति “द स्कारलैट लैटर” याद आती है जो सन 1850 में प्रकाशित हुई थी और आज 162 वर्ष बीत जाने के बाद भी प्रासंगिक बनी हुई है। इस उपन्यास में “बाइबिल”, “पिलग्रिम्स प्रोसेस” आदि पौराणिक व पुरा-ऎतिहासिक ग्रंथो का प्रभाव है। स्त्री विमर्श की प्रारम्भिक रचनाओं में, अनेक असहमतियों के बावजूद, इसका सम्मानीय स्थान है। सुनीता के जनगीत “कोई शिल्पकार यहाँ आएगा” में भी “रामायण”, “महाभारत” जैसे धर्मग्रंथों को आधार बनाकर स्त्री पर यथार्थपरक विमर्श किया गया है। हॉर्थन के उपन्यास “द स्कारलेट लैटर” पर कई फिल्में बन चुकी है और सुनीता का यह जनगीत भी संवेदन शील फिल्मकारों के लिये आधारभूमि उपलब्ध कराता है। सुनीता की कविताओं का यह पहला संग्रह उनके लिये तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही समग्र हिंदी कविता संसार के लिये भी महत्वपूर्ण है। इस संग्रह में भविष्य की एक दृष्टा और जीवंत कवयित्री की पदचाप सुनाई दे रही है। ये संभावनाओं के स्वर पूर्णतः जीवंत हो सकें और अनंत आसमान को नापने की इच्छा रखने वाला पखेरु अपने लक्ष्य को प्राप्त करे, यही कामना है। ज़िंदगी की खूबसूरत कविता को भरपूर जीने की ख्वाहिश करने वाले सुनीता शानू के “मन पखेरु” की यह पहली उड़ान सधी हुई, संतुलित तथा आत्म विश्वास से भरी हुई है। यह आशा की जानी चाहिये कि अपनी इस उड़ान में तथा भविष्य में होने वाली उड़ानों में यह मन पखेरु जीवन के आसमान की नई-नई बुलंदियों तक पहुंचेगा और नए रहस्यों का अन्वेषण करेगा। फिलहाल सुनीता जी के लिये प्रख्यात शायर डॉ बशीर बद्र का ये शेर मुलाहिज़ा फ़रमाएं...
 चमक रही है परों में उड़ान की खुश्बू।
बुला रही है बहुत आसमान की खुश्बू।
आनंदकृष्ण, भोपाल (म॰प्र॰)
मोबा.: 9425800818

Tuesday, February 12, 2013

तुम यहीं कहीं हो पास मेरे



यादों की स्याही से लिखा था
जो खत तुमने
हर शब्द चूमा है
अधरों ने
तुम्हें याद कर
कि जैसे उभर आई हो
तस्वीर तुम्हारी

इन शब्दों में
तुम दूर हो मुझसे
यह कह भी दिया
किसने तुम्हें
साँसों का कहना है
कि ये
तुमसे होकर
समा जाती है
मुझमें

जब भी उठती है सीने में
एक लहर-सी
तुम आते हो
और हाथ अपना रख
कर देते हो
चुप उसे

हर सिहरन का होना भी
अहसास दिलाता है
कि तुम यहीं कहीं हो
पास मेरे।
शानू (मन पखेरु उड़ चला फिर काव्य-संग्रह से)

Monday, February 4, 2013

मेरा पहला काव्य-संग्रह...



सुप्रभात मित्रों,

जाने कब से मेरे दोस्त, मेरे अपने मुझसे सवाल कर रहे थे कि मै अपनी कविताओं को संग्रह का रुप कब दूँगी। हर बार बुक फ़ेयर में पहला सवाल यही होता था कि मेरा संग्रह कब आयेगा। जिसकी खबर खुद मुझे भी नही थी। परन्तु मेरे दोस्तों का स्नेह उनकी दुआएं जल्दी ही रंग लाई और मेरा काव्य संग्रह आप सबके सामने हाज़िर है :) लेकिन अब भी एक बात बाकी है वो है आप सबसे मेरा वादा... तो दोस्तों आप सब तैयार हो जायें जल्द ही एक छोटा सा सम्मेलन किया जायेगा और कुछ गणमान्य  पुस्तक का विमोचन करेंगे। मै चाहती हूँ आप सभी मेरे मित्रजन उपस्थित रह कर आयोजन की गरिमा को बढ़ायेंगे। मार्च महिने में ही किसी विशेष तारीख को यह आयोजन रखा जायेगा। जल्दी ही मिलते हैं आप मै और आपकी हमारी कविताएं...

नमस्कार
सुनीता शानू

Thursday, January 24, 2013

माँ




माँ आज फिर ’तुम’
याद आने लगी हो

कई सालों से
नही मिला आँचल तुम्हारा
वो आँचलजिसकी ओट में
खेलती थी छुपछुपाई
वो आँचल जिसके कौने से
पोंछती थी तुम मेरे आँसू
उसी आँचल की छाँव में
बसता था मेरा नन्हा संसार
कई बार 
तुमसे डाँट खा कर
छुपा लेता था वही आँचल
माँ आज फिर तुम
बहुत याद आने लगी हो

आज फिर जरूरत है
तुम्हारी गोद की
तुम्हे याद है न
रात को अचानक
किसी बात से डर कर
मेरा चौंक कर उठना
और तुम्हारे सीने से लिपट
सो जाना
जैसे कुछ हुआ ही नही
आज फिर जरूरत है माँ
तुम्हारी
मेरे चारों तर
बुन गया है भयानक मकड़जाल
और मेरी साँसे घुटने लगी हैं
शायद अब मै चौंक कर उठने वाली हूँ
लेकिन ऎ माँ अब कौन सुलायेगा
फिर से मुझे?
माँ आ जाओ एक बार
कई दिनों से
मै
सोई नही हूँ

अंतिम सत्य