Monday, July 16, 2007
चलिये थोड़ा हास्य हो जाये
ये कविता हास्य-व्यंग्य पर आधारित है
कृपया इसे अन्यथा ना लिया जाये हँसी के साथ पढ़ा जाये और हँसगुल्ले की तरह उड़ा दिया जाये...
कह रहे वृतान्त सारा,
सुन लिजे कान लगाय,
ब्लागर मिटवा में गुरूवर,
अब ना हम जा पाय।
अब ना हम जा पाय,
वहाँ बस होती टाँग खिंचाई,
मेल-मिलाप तो दूर ही समझो,
रिश्तों में भी चतुराई।
रिश्तों में भी चतुराई,
हमसे न देखी जाये,
हम ठहरे सत्संगी भैया,
कुछ भी समझ ना पाये।
कोई आये बनारस से,
तो कोई नाथ के द्वारे,
कोई आये गुजरात से,
तो कोई अहमदाबाद से प्यारे।
हम तो समझ न पाये,
क्यों होती गुटबन्दी,
चौबारे पर बैठके,
क्यों बाते करते मंदी।
क्यों बातें करते मन्दी,
फ़ुनवा को कान लगाय,
बातों में भी हेरा-फ़ेरी,
हम तो समझ न पाये।
आपस में परिचय कर,
बैठे सीट लगाये,
तभी एक कौने से,
वेटर जी आये।
एक दूजे की शकल देख-कर,
सब ही बहुत चकराये,
जब वेटरजी ने आकर,
सबको मीनू पकड़ाये।
झाँका-झाँकी शुरू हुई जब,
सब अपनी शकल छुपायें,
वेटर जी भी देख सभी को,
मंद-मंद मुस्काये।
मंद-मंद मुस्काये गुरूवर,
हम तो शर्म से गड़ ही जाय,
जैसे ही आये प्रबंधक,
सबने वेटर को दिये बताय।
कॉफ़ी पीकर जैसे ही हम,
बैठे कुछ सुस्ताने,
तभी पलायन किया जाये,
लगे सभी बतियाने।
क्या बतलाये हम तुमको.
सोच-सोच कर पछताये
यहाँ से वहाँ दौड़ लगाते,
बहुत ही हम शर्माये।
कलम दिवानी क्या करे,
कोई हमे समझायें,
बिन स्याही के भी देखों,
कैसन चलती जाये।
कैसन चलती जाय गुरुवर,
एसी मारे मार,
ढोल की पोल भी खोल दे,
अंटाचीत भी लाये।
छोड़ बात अधूरी प्रभुजी,
हमतो रहे सकुचाये,
सारा विवरण दे पाते,
वो शब्द कहाँ से लाएं।
गदहा लेखन का काम गुरुवर
तुमही रहे सिखलाये
एक ही गदहा लिखा था हमने
लिख कर हम पछताये
लिख कर हम पछताये,
आहत मित्र किये सभी
पढ़ हमारे गद्य को
हो गई कैसी तना तनी।
हो गई तना-तनी
हमको रहे समझायें
जो कर रहे मन-मौजी
उनको रहे टिपीयाये।
उनको रहे टिपीयाये गुरूवर,
हमसे ना देखा जाये,
तुम भी होगये पराये गुरुवर,
अब ना हम जा पायें।
सुनीता(शानू)
http://sanuspoem.blogspot.com/ का पूण विवरण)
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सबसे पहले आप सभी को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनायें... कुछ हॉस्य हो जाये... हमने कहा, जानेमन हैप्पी न्यू इयर हँसकर बोले वो सेम टू यू माई डिय...
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एक छोटा सा शहर जबलपुर... क्या कहने!!! न न न लगता है हमे अपने शब्द वापिस लेने होंगे वरना छोटा कहे जाने पर जबलपुर वाले हमसे खफ़ा हो ही जायेंगे....
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शानू जी, मज़ेदार कविता है!
ReplyDeleteअरे, पराये हों हमारे दुश्मन. हम बस देर हो गये. क्या सटीक अचूक ब्रह्मास्त्र चलाया है कि आनन्द ही आ गया. निश्चिंत होकर लिखो. हम हैं न!! :) साधुवाद इस बेहतरीन और बेबाक लेखन पर. हमें तो आनन्द आ गया. गद्य और पद्य दोनोम में झंडा फहरा दिया एक ही दिन में. हम हतप्रद हैं, हा हा!!!
ReplyDeleteबहुत सही। ऐसे ही गदहा और पदहा लेखन में झंडा फ़हराती रहें।
ReplyDeleteअच्छा है सुनिता जी ....मजा आ गया
ReplyDeleteऎसी ही लिखती रहें....
सुनीता जी,
ReplyDeleteआपकी नाराज़गी ज़ायज़ है और इस हास्य कविता का व्यंग्य इसीलिये काफी तीखा है. बहुत खूब.
मगर कम से कम गद्य लेखन को गदहा लेखन कहकर हमारे गद्य-लेखन शुरू करने के विचारों पर तुषारापात तो मत कीजिये.
क्या बात है, शानदार गद्य के बाद अब एक शानदार हास्य कविता भी!! बाकियों को कफ़ी पीछे छोड़ने का इरादा लगता है आपका!
ReplyDeleteवैसे भगवान ऐसी संगत आपको हमेशा दे जिसके फ़लस्वरुप गद्य और पद्य दोनों में कमाल किया आपने!!
गदहा लेखन में टिपियाये हैं तो पदहा लेखन में भी टिपियाना पडेगा ही । शुकुल महराज नें झंडा धराई दिया है और अगस्त आई रहा है । बकिये के गुरूओं नें भी अशीष दे ही दिया है, वीर तुम बढे चलो . . . ।
ReplyDeleteबधाई सुनीता जी सटीक ब्यंग कविता के लिए घटनाओं का जीवेत चित्रण किया है ।
अब बडे गुरूजी नें साधुवाद कह ही दिया है तो हम भी कहेंगे, साधुवाद
वाह वाह वाह । कमाल किया है । कल के गद्य पर बधाई नहीं दे पाया और शायद करने का मन ही नहीं हो रहा था, कारण कि मैं उन सब बातों को शायद पद्य में ही तलाश कर रहा था और यह तलाश इस नायाब शुरूआत में पूरी हुई। एक बार फिर से बहुत बहुत बधाई। मैं तो गधहा लेखन नहीं कहूँगा, आप तो पधहा लेखन ही करो। पढ कर मन प्रफुल्लित हो गया है, मन ही मन हॅंसी फूट रही है। सतसईया के दोहरे, देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर।
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteअच्छा लिखा है सुनीता जी
हँसा दिया आपने
गौरव शुक्ल
भाइ हम तो साधुवाद ही देगे.वैसे आपने कल गदहा(गद्द)लेखन भी कमाल का किया था,और कविता तो आपकी चाय के साथ समोसे जैसी है ही..:)
ReplyDeleteहमारे साथी, अभी भी इस खूबसूरत कविता को नाराजगी की अभिव्यक्ति ही मान रहे हैं, ऐसा नहीं है, मैं अपनी और से कहना फिर कहना चाहूँगा कि किसी कार्य में और सुधार के लिए सकारात्मक सुझाव देना ओर कमी निकालना सिर्फ आलोचना या बुराई नहीं है। बहुत ही बेहतरीन चुटीली व्यंग्य रचना है, इसे पढ कर हास्य का आनन्द लिया जाना चाहिये और व्यंग्य से सीख ली जानी चाहिये।
ReplyDeleteएक बात को कहना भूल ही गया। इसे पढ कर काकाजी 'काका हाथरसी' की याद आ गई। बहुत समय पश्चात उनकी शैली की कविता पढी है। धन्यवाद और फिर से बधाई।
ReplyDeleteलो जी मैं भी टिप्पयीने आ गया.
ReplyDeleteक्यों? क्योंकि सुना है एक टिप्पणी पर एक कप चाय पक्की है. और आपके हाथो बनी चाय की प्रसंशा तो सुन ही चुके है. :)
अच्छा व्यंग्य है, बिलकुल चाय जैसा मजेदार.
शानूजी
ReplyDeleteखबर है कि जो ब्लागर आपके गुट के हैं, उन्हे आपने चाय के कई पैकेट गिफ्ट किये हैं, उस दिन ब्लागर्स मीट में।
हमें आपने अब गुट से कब निकाल दिया जी।
बहुत सुन्दर लिखा है शानू जी...
ReplyDeleteमेरा मन भी हास्य लिखने को करने लगा... यहीं लिख देता हूं
तुम तो जो भी लिख दो
बहु जन पढें पढायें
हम जो डालें घास वो
ससुरा गधा भी न खाये
लगता है काफी की कड़वाहट अभी गयी नही ..... एक आध घूँट दर्ज्लिंग चाय का पी लेते तो अच्छा था ..... कविता लाजवाब है
ReplyDeleteरपट को हास्य-व्यंग्य कविता की शकल देना अच्छा है, थोड़ा इसे और विस्तार मिल जाता तो अच्छा था। क्योंकि व्यंग्य में भी सम्पूर्णता अभिलक्षित है।
ReplyDeleteसुनीता जी, ये गदहा लेखन पर आपका व्यंग बेमिसाल है.पर यह मानसिकता तो समाज के हर अंग मे मौज़ूद है, फ़िर लेखकों में होना कोई अटपटा तो नही!!!!!
ReplyDelete-Dr.RG
waah kyaa baat hai.
ReplyDeleteज्यादा पढी गयी ब्लौग साइट देख रहा था. आपकी हास्य,व्यंग्य,व अन्य सारे रसों से भरी मीट की रपट एक बार फिर पढने में आई. मज़ेदार!!!
ReplyDeleteहां,अगली मीट तो आप खुद आयोजित करने वाली थीं, हम तो प्रतीक्षा रत है कि कब आये बुलावा और पीने को मिले 'उम्दा' किस्म की चाय!!!
bahut badiya, bade dino bad ek accha hasyvyang pada. kuch aur hasya ki ummed hai
ReplyDeleteसुनीता जी,
ReplyDeleteआपकी यह कविता और उसका रंग संयोजन, दोनों ही बहुत आकषॆक है। आज यूं ही नेट पर हिंदी कविता सचॆ कर रहा था। आपकी कविता भी उसी तलाश का हिस्सा है। हाई-५ के जरिए मुलाकात और अब इस ब्लाग साइट पर आपको पढ़ना, अच्छा लगा। लिखते रहिए, यही हमें एक रिश्ते से बांधता है।
मुझमें तुझमें बस एक रिश्ता है,
तेरे अंदर भी छटपटाहट है।