चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, October 2, 2007

विचारों की श्रंखला


विचारों की श्रंखला
टूटती ही नही
एक आता है एक जाता है
दिन भर हावी रहते है
लड़ते रहते है
अपने ही वज़ूद से
और
विचारों का आना-जाना

पीछा नही छोड़ता
नींद में भी
पिघलते रहते हैं
रात भर

स्वप्न में भी
और
नींद खुलने के साथ
हावी हो जाता है

एक नया विचार

पूरे दिन की कशमकश में
जीतता वही है
जो ताकतवर होता है
वकीलो की तरह
झूठी सच्ची दलीलों की तरह


आत्मा विरोध करती है
सरकारी वकील की तरह
मगर सबूतों के अभाव में
दिन-भर की लड़ी हुई
थकी माँदी निर्बल आत्मा से
झूठी बेबुनियाद दलीले
जीत जाती है

जैसे बीमारी के कीटाणु
बीमार शरीर को ही
जल्दी शिकार बनाते हैं
और शरीर को सजा हो जाती है
मनोविकारों से पीड़ित रोगी
जो दिमाग का संतुलन खो बैठते है
खुद को पाते है...

शून्य में

सुनीता शानू

21 comments:

  1. जैसे बीमारी के कीटाणु
    बीमार शरीर को ही
    जल्दी शिकार बनाते हैं
    और शरीर को सजा हो जाती है
    मनोविकारों से पीड़ित रोगी
    जो दिमाग का संतुलन खो बैठते है
    खुद को पाते है...

    शून्य में


    --गहरे भाव हैं, सुनीता जी. बधाई.

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  2. बड़ी गहरी बात कह दी।

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  3. बहुत ही उम्‍दा प्रयास है, शव्‍दों की बानगी और भाव कविता में बखूबी अनुभवी कवि की झलक दिखा रही है । आप ऐसे ही प्रयास करती रहें पिछली कविताओं की प्रस्‍तुति को देखते हुए लगता है कि आपके भाव नें शव्‍दों को इस कविता में पकडा है ।

    धन्‍यवाद ।

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  4. बढ़िया!!

    आपकी चिंतन प्रक्रिया ही समूची बदल गई ऐसा आभास हो रहा है!

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  5. बहुत अच्छी और तार्किक सोच है ! विचार कभी नही थमते! और जब विचार थमते है तो मनुष्य का जीवन थम जाता है!

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  6. विचारो का आना-जाना
    नींद मे भी पीछा नही छोड़ता
    रात भर स्वप्न में
    भी खेलते रहते है
    और नींद खुलने पर
    हावी हो जाता है एक नया विचार
    बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...दिल को छू गयी ये पंक्ति ....साधुवाद ....

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  7. सुन्दर ! सच है विचारों की श्रृंखला बडी अजीब होती है, हमेशा अन्तरमन से लडती रहती है, पर अंत में सार्थक, सत्य विचारों की ही जीत होती है ! आपने सटीक मनोवैज्ञानिक विशलेषण किया है, मानव मन का।

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  8. ये विचार ही तो हैं जो हमें संजीवित रखते हैं । बहुत अचछा लिखा है बधाई ।

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  9. ये विचार ही तो हैं जो हमें क्रियाशील रखते हैं । उनके बिना हम क्या ? बढिया ।

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  10. सुनीता जी,

    सुन्दर भाव हैं परन्तु बीच बीच में कविता का रूप गद्य हो गया है... थोडी शिल्प की कमी रह गई... पर भावों वह कमी दबा दी.

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  11. agar ye kavita
    thodi compact hoti..
    to aur pyari lagegi..

    1st aur 3rd(last) band...

    Pyaara hai ..flow bhi..baat bhi..

    esa mujhe lagta hai

    with love
    ..masto...

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  12. buddhi ke vikaas ke saath he manushy ke jeevan men kai tarah kee visangatiyaan bhee ubharne lagee hain.vichaar, maanav kee shakti hain par ye hee vichaar ab maanav par haavee hone lage hain
    aapkee rachnaa ek saarthak v daarshnik sambhaavnaa ke saath viraam leti hai. jis shoony ko aapne kavitaa men niShkarSh ke roop men paayaa hai wo hee to brahm hai, jo vichaar shoonytaa kee sthiti men jaagrat hotaa hai.
    sambhaawnaa-sheel kavitaa hai.jis shoony par yah rachnaa viraam leti hai waheen se jeevan kaa jai-ghoSh shuroo hotaa hai.

    anandkrishan, jabalpur
    mob-09425800818

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  14. विचारों पर कोइ नियंत्रण नहीं हो सकता |
    बहुत उन्दा रचना |
    आशा

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  15. अच्छी ,परिपक्व सोच!!सशक्त अभिव्यक्ति!!

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  16. विचारों पर कहाँ अख्तियार है ..एक जाता है दूसरा आता है ... विचारों की कश्मकश खूब दर्शायी है ..

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  17. गहन चिन्तन के बाद उपजी एक शानदार रचना।

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  18. सार्थक सोच ,गहरी चिन्तन....

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  19. गहरे भाव व्यक्त करती बेहतरीन रचना....

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य