चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, December 30, 2008

हॉस्य कविता नव-वर्ष पर...


सबसे पहले आप सभी को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनायें...


कुछ हॉस्य हो जाये...



हमने कहा, जानेमन हैप्पी न्यू इयर

हँसकर बोले वो सेम टू यू माई डियर


पहले बस इतना बतलाओ

आज नया क्या है समझाओ


नये साल पर ही करती हो मीठी-मीठी बातें

चलो रहने भी दो हमको चूना मत लगाओ


कब मिली है हमको बिरयानी

अपनी तो वही रोटी और दाल है

सब कुछ तो है वही पुराना

फ़िर भी कहती हो नया साल है


अच्छा छोड़ो बेकार की बातें

बात करो कुछ क्लीयर

तुम भी मनाओ जश्न आज

हमे भी लेने दो बीयर


नये साल का जश्न

कुछ ऎसा हम मनायें

भूल कर सारे गिले शिकवे

पड़ौसन को भी बुलायें


बीयर तक तो श्रीमान जी की

बात समझ में आई

मगर पडौसन को लाने की

कैसी शर्त लगाई


फ़िर भी दिल पर काबू कर के

पौंछे हमने टियर्स

देकर हाथ में चाय का प्याला

बोले उनको चियर्स


नही मनाना हमे नया साल

रहने दो डियर

टकरायेंगे बस चाय के प्याले

और कहेंगे चियर्स...


सुनीता शानू

Saturday, December 20, 2008

एक नन्हा सपना



मन के
आँगन की माटी को
सौंप दिये
अरमानों के बीज
सौंधी खुशबू से लिपटे
आशाओं के पानी से सीँचें
स्वर्ण किरणों ने प्यार उड़ेला
तब नन्हे-नन्हे अँकुर फ़ूटे

मीठा-मीठा कोमल मखमली
कोपल के जैसा
अहसास हृदय में जागा
विश्वास ने जड़े फ़ैलाई
सुन्दर मधुर संगीत लिये
फ़ैलाती बाहें पुरवाई

मन में सोये तार बजे
सपनों ने ली अंगड़ाई
सोई हूक जगाने वाला
स्वर्णिम पल है आने वाला
सपने जब होंगे पूरे
सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे
आँगन में खूब खिलेंगे
भाव घनेरे

सूने मन में बातें होंगी
चिडियों सी
चहचहाहट होगी
रंग-बिरंगी तितली के जैसी
खूशबू होगी
छूकर मुझको यहाँ-वहाँ
फ़ैलेगी वो
जाने कहाँ-कहाँ...


सुनीता शानू

Wednesday, December 10, 2008

जिंदगी



तनहा कँटीळी
खाली बरतन सी जिंदगी
भर गई अचानक
जूही के फूलो की
महक सी
खिल गई शाखों पर
अनगिन पुष्प-गुच्छ
अमलतास सी
भिगो गई
शरद पूर्णिमा की
उजली चाँदनी सी
जिंदगी की राहों में
गुलाब सी खूबसूरत
महक ही देखी मगर
न देख पाई
गुलाब की हिफ़ाजत करते
उन बेहिसाब काटों को...

सुनीता शानू

Monday, December 1, 2008

बिल्ली के गले में घण्टी बाँधेगा कौन?

कब मिटेंगे आतंक के साये हर रोज यही सवाल बेचैन करता रहता है? जब कभी घर के किसी सदस्य को चोट लग जाती है हम परेशान हो जाते हैं, देखो सम्भलकर चलना कहीं ठोकर न लग जाये, जल्दी घर लौटना, किसी अजनबी से बात मत करना। न जाने कितनी ही हिदायतें हम बच्चों को दिया करते हैं, किन्तु यह बताना नही भूल पाते जब कभी आतंकी हमला हो जाये बेटा चुपके से छुप जाना या फ़िर भाग आना। चाहे कितने ही लोग पकड़ लिये गये हों तुम्हारी जान बहुत कीमती है, तुम हमारे घर के चिराग हो तुम्हारे बिना हम जी नही सकेंगे। क्या देश पर जो कुर्बान हो गये वो किसी के बेटे नही थे, किसी के पति नही थे? मगर नही हम बस खुद के बारे में सोचते हैं, मुम्बई का ब्लॉस्ट इतना गहरा नही था, अगर यही दिल्ली में होता तो शायद ज्यादा असर करता हम पर, और अगर उस ब्लॉस्ट में हमारे अपने भी शामिल होते तो कितनी गालियाँ निकालते इस भ्रष्ट राजनीति को की हम बता नही सकते। सारा दोष ही इस भ्रष्ट शासन प्रणाली का है।

मुझे समझ नही आता ये नेता क्या घास काटते रहते हैं, मेरे ख्याल से इन्हें खाकी वर्दी पहन कर रात को गश्त लगानी चाहिये...जागते रहो...हाँ जागते रहो का नारा ही ठीक रहेगा। एक ओर हम मंत्रियों से ये सवाल करते हैं की देश में आतंकवादी कैसे घुस गये, दूसरी तरफ़ हम खुद सरकार से चोरी छिपे कई काम कर जाते हैं, अगर कहीं पकड़े गये अमुक मंत्री या ऑफ़िसर का हवाला देकर या पुलिस को हजार-पाँच सौ देकर अपना पिंड छुड़ाते हैं। कितनी ही बार जाली लाईसेंस या जाली पासपोर्ट यहाँ तक की जाली साइन तक कर लेते हैं, हाँ जी आज नकली पुलिस का कार्ड, प्रेस का कार्ड, रखना हमारी शान हो गई है। यह कार्ड ही तो हमे हर चेकिंग से बचा ले ते हैं। जब हम यह सब बेफ़िक्री से कर पाते हैं तो हमारे देश में घुसपैठ क्योंकर न होगी?

जो काम बार-बार हमारे देश की सेना को करना पड़ता है हम क्यों नही कर पाते? क्यों चंद आतंकियों को देख कर दहशत में आ जाते है और बस खुद को बचाने की सोचते हैं, हमारे देश की सेना को ही शायद देश पर कुर्बान होने की कसम दी जाती है, यह भी सही है उनको कुर्बानी की कीमत जो मिलती है, यह तो उनकी ड्यूटी है भैया, हमारा काम है मोमबत्ती जलाना या दो मिनिट का मौन करना, हम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से जानते हैं।

बड़ी मुश्किल से आज मीडिया यहाँ तक पहुँची है कि हमे देश के हालात का पता चल पाता है। दंगे-फ़साद कल भी इतने ही होते थे, मगर एक आम नागरिक को अपराध और अपराधी की झलक नही मिल पाती थी। किन्तु मीडिया ने यह कर दिखाया है। क्या जरूरत थी दीपक चौरसिया को कारगिल पर जाकर हमारे देश के सिपाहियों का हाल बताने की। क्या जरूरत थी मुम्बई काण्ड में छत्तीस घंण्टे से लेकर साठ घण्टे तक इन नौजवानो को दहशत में रहने की? क्या जरूरत थी रिपोर्टर्स को नजदीक से उस आतंक को देखने की? हमने तो नही कहा था ऎसा करने के लिये, कहीं एक बंदूक की गोली या एक धमाका उनकी जिंदगी ले लेता, और उनके परिवार को क्या मिलता? रिपोर्टिंग के लिये शहीद होने पर कुछ पैसा या पदक? लेकिन अभी भी लगता है ये सब टी. आर. पी. का ही चक्कर है? लेकिन क्या हममे से कोई वहाँ जा सकता था? या हम किसी अपने को वहाँ मदद के लिये भेज सकते थे? हम घर बैठे सब कुछ देख रहे थे। और देख रहे थे कि इन मरने वालो या बंधकों की भीड़ में हमारा अपना तो कोई नही? कितने घायल हुए कितने शहीद हुए...हम लम्हा रौंगटे खड़े करने वाला था। ऎसा जान पड़ता था कि आतंक के काले बादल हमारे घर पर छाये हुए हैं,फ़िर भी हम खा पी रहे थे। क्योंकि हम अपने घर में सुरक्षित थे।

सचमुच उन जाँबाज पुलिस अफ़सरों, उन वतनपरस्त देशभक्तों का और अपनी जान की परवाह न करके रिपोर्टिंग करने वालो का हमें शुक्रिया करना चाहिये, जिन्होने सारा ऑपरेशन हमे लाइव दिखा कर हमारे अंदर देशभक्ति का जज्बा पैदा किया और हम उन नेताओं को कुर्सी से हटा पाये जो सही चोकीदारी नही कर रहे थे? और अब उन रिपोर्टर्स को भी मूर्ख, अशिक्षित बता पायेंगे जो वहाँ खड़े नही, पड़े रह कर( चाहे गोली उनके सिर के ऊपर से चली जाती) रिपोर्टिंग कर रहे थें। और उन शहीद जवानों को तो सलामी मिलनी ही चाहिये जो निस्वार्थ भाव से देश की रक्षा के लिये कूद पड़े। अब ये और बात है कि किसी को उनकी कुर्बानी में भी राजनीति की रोटियां सेकने की मोहलत मिल गई।

खैर इस बात का शुक्र मनाओ हम तो बच गये, हमला पडौस की मुम्बई में हुआ दिल्ली में नही। लेकिन सोचो जरा कब तक? चार-पाँच महिने बाद अगर फ़िर कोई धमाका हुआ। फ़िर कोई हमारा अपना शहीद हुआ। किसे कुर्सी से हटायेंगे? किसे गाली निकालेंगे? या फ़िर हम भी उन लाखों करोडो की तरह आँसू बहायेंगे।और इस बार इन पागल रिपोर्टरो ने भी हमे न बताया न लाइव दिखाया कि हमले में हमारा कोई अपना तो नही, हम तो कहीं के न रहे न। और अगर हमला हम पर ही हुआ तो क्या इस बार हमारा फ़ोटो टीवी पर भी नही आ पायेगा। मोमबत्ती कौन-कौन जलायेगा कैसे पता चलेगा? चलो हम भी आतंकवाद के खिलाफ़ एक मुहिम चलायें, लेकिन पहले हम ये सुनिश्चित कर ले की बिल्ली के गले में घण्टी बाँधेगा कौन?

Tuesday, November 11, 2008

दिल्ली हॉट की गिटर-पिटर

मिला हमें जब नेह निमंत्रण,
जा पहुँचे हम दिल्ली हॉट,
टिकिट कटा भागे भीतर को,
जहाँ सब देख रहे थे बाट।



सबने बोला हल्लो हाय
हाथ मिले और गले लगाय,
बैठा अपने पास हमें फ़िर
शुरू किया अगला अध्याय।




जान-पहचान हुई सबकी
नये पुराने सब फ़रमायें
कौन लगा किसको कैसा
बिना डरे सच-सच बतलायें।



प्रेम ही सत्य है प्रेम करो
मीनाक्षी जी ने समझाया
उठो नारी के सम्मान में सब
सुजाता जी ने फ़रमाया।



रन्जू जी कविता के जैसे
महक रही थी महफ़िल में
अनुराधा भी दिखा रही थी
रंग-बिरंगे जीवन के सपने।


मनविन्दर जी आई मेरठ से
सबका स्नेह बतायें
चेहरे से था रोब झलकता
भीतर-भीतर मुस्कायें।



रचना जी ने कहा सभी से
अब सक्रिय हो जायें
योगदान दें सभी लेखन में
अपना फ़र्ज निभायें।



काव्य की गंगा में बही जब
सुजाता जी की मीठी बोली
छेड़ा तार मीनाक्षी जी ने
गीतों में मिश्री सी घोली।



रन्जू जी की प्यारी कविता
सुनकर रचना जी भी जागी
सपने तो सपने होते है
झट पुरानी कविता दागी।


छेड़ हृदय की सरगम तब
मन पखेरू फ़िर उड़ चला
हुई सभा सम्पन्न और ये
सौहार्द मिलन लगा बहुत भला।


आधी मीटिंग ही कर पाये थे
सो चर्चा रही अधूरी हमारी
सतरंगी चर्चा के बाद शायद हो
पचरंगी खट्टी-मीठी अचारी।




सुनीता शानू

Tuesday, October 28, 2008

दीपावली की शुभकामनाएं

शुभ-दीपावली


सुबह का सूरज ले आया
खुशियों की सौगात
पूरे होंगे अरमां सारे
जागेगी सारी रात
नन्हा सा एक दीप जला
सजी दीपों की बारात
आओ जलाये दीप एक
उन शहीदों के नाम
हुए न्यौछावर देश पर जो
जिनसे रौशन है कायनात
सुनीता शानू

Friday, September 5, 2008

और मै रूठ पाऊँ...



चिट्ठाजगत
-हर रोज-
-दिन निकलने के साथ-
-मेरे पास होते हैं कई सवाल-
-तुम्हारे लिये-
-खोज-खोज कर-
-सहेज लेती हूँ उन्हे-
-कि तुम्हारे कुछ कहने से पहले ही-
-पूछूंगी तुमसे-
-उन सवालों के जवाब-
-परंतु मेरे कुछ कहने से पहले ही-
-तुम समझ जाते हो-
-मेरी हर बात-
-और बिन कहे ही-
-रख देते हो जवाबों का पुलिंदा-
-मेरे हाथों में और-
-तुम्हारी मीठी-मीठी-
-बातों का जादू-
-समेट देता है मुझे-
-मेरे शब्दो के साथ-
-चिपक जाती है जीभ तालू में-
-और सोचती हूँ-
-आखिर झगडा़ किस बात पर हो-
-कि तुम मुझे मनाओ-
-और मै रूठ पाऊँ...
सुनीता शानू

Tuesday, September 2, 2008

रिश्तों की परिभाषा




रिश्तों की परिभाषा


चँचल मृग-नयनों में बसे, इन अश्को की भाषा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


कभी-कभी अनजानी सी एक डगर,
पर लगती है कुछ जानी-पहचानी सी,
एक पल में लगता है कोई अपना सा
और हो जाती है हर बात पुरानी सी।


तुम तन से लाख छुपा लो पर, मन की अभिलाषा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


फ़ासले लाख बढा़यें पर बढ़ नही पाता,
जुदाई में भी इश्क कभी मर नही जाता,
महबूब से जन्नत सी लगती है जिंदगी,
पर तनहाई में एक पल रहा नही जाता।


मुझ बिन उमड़-घुमड़ आई आँखों से,वो जिज्ञासा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥



क्यों पल भर में दूरी बंध जाती है,
एक अनजाने अदृश्य बंधन सी,
फ़िर कैसे बिन मांगे मथ जाती है,
अनचाहे रिश्तों के समुंद्र मंथन सी।


बिन बाँधें बँध जाने वाले इन, रिश्तो की आशा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


खुद को पाने की कशमकश में,
खो देता है जो अक्सर खुदी को,
ढूँढता फ़िरता है जिस मृग को,
वो बस मिलता है कस्तूरी को,


स्वप्न लोक में मृग-मरीचिका की, घोर निराशा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥

जिन रिश्तों की जड़े होती है हठीली,
टू्टे गमले मॆं भी डाली रहती है गर्विली,
कच्चे धागे से बँधा विश्वास भी टूटता नही,
पानी में भीग गाँठे होती है ज्यादा गठीली,

प्रेम और विश्वास के अभिलाष, प्रेम की अभिप्सा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥

सुनीता शानू

Tuesday, August 12, 2008

प्यार की पहली बारिश








एक मुद्दत से कुछ लिख नही पाई हूँ,आज एक प्रयास किया है,बस और कुछ नही...



वो उतरी है जिस रोज आसमान से
रिम-झिम सावन की फ़ुहार बनके
झिलमिलाती रही ऎसे आँगन में मेरे
असंख्य मोतियों का श्रृंगार बनके।




छूती हूँ जब भी मै होठों से उसे
महक उठती हूँ सोंधी बयार बनके
चमकती रही ऎसे जीवन में मेरे
आई हो खुशियों का संसार बनके।




एक नन्ही सी बूँद मिली जब उसे
खिल गई हर कली बहार बन के
मुस्कुराई फ़िर ऎसे गजरे में मेरे
सज गई हो जूही का हार बनके।




चाँद की खामोशी खली फ़िर उसे
चमकी बादल में अंगार बनके
बरसती रही ऎसे मधुबन में मेरे
सावन की पहली बौछार बनके।




अहसास प्रेम का हुआ जब उसे
बह चली आँसुओं की धार बनके
पिघलती रही वो हृदय मे मेरे
प्रियतम का पहला प्यार बनके...






सुनीता शानू





Tuesday, May 6, 2008

जबलपुर की यात्रा...

एक छोटा सा शहर जबलपुर...क्या कहने!!!
न न न लगता है हमे अपने शब्द वापिस लेने होंगे वरना छोटा कहे जाने पर जबलपुर वाले हमसे खफ़ा हो ही जायेंगे...:) तो दोस्तों एक खूबसूरत महानगर जबलपुर...
गये तो थे हम हकीम साहेब से ससुर जी का इलाज़ करवाने
मगर स्टेशन पर ही पकड़े गये कवि महोदय के द्वारा...उन्होने बड़ी गर्म जोशी के साथ हमारा स्वागत किया...तमाम स्थानीय अखबारों के साथ जिनमें खबर थी एक कवि सम्मेलन की और सम्मेलन में था हमारा नाम...:) ये कवि कोई और नही सुप्रसिध्द गीतकार और समीक्षक

श्री आनन्द कृष्ण थे...




इसके बाद मिले हम हमारे बच्चों से जो जबलपुर में ही रह कर पढ़ाई कर रहे है...हमारी दीदी के बच्चें...यानी की हम हुए मौसी...:)
शाम को हुआ कवि सम्मेलन जिसमें जाने माने कवि विराजमान हुए...

ये लीजिये कौन कहता है कि बच्चों में प्रतिभा नही होती...जबलपुर का तो बच्चा-बच्चा कवि है..तभी तो यह नन्हा कवि मंच पर आकर माईक झपट रहा है...अरे उसे भी सुना लेने दो भाई...

(मनीष तिवारी जी व उनके सुपुत्र)
सुनाये बिना तो मानेगा नही देखिये जरा उसे फ़िक्र नही है कपड़ो की मगर कविता की दशा सुधारनी जरूरी है...


(गीतकार कवि युसुफ़ व नन्हे कवि तिवारी)
और सम्मेलन के बाद आनंद जी की सहधर्मिणी के हाथ से बना सुस्वादिष्ट भोजन मिला और खोये की जलेबी किसकी तारीफ़ करें भाभी जी की या भोजन की समझ नही पा रहे...



और दूसरा दिन...
चलिये चला जाये भेडा़ घाट...


ये है हमारी टीम...सारे बच्चे एक मौसी...और अंत में बैठा है एक और बच्चा...जो हमें जबलपुर मे ही मिला...



(आदित्य,आशा,मै सुनीता,पिंकी,व रिचा)

(सुमित ,रिचा,आदित्य व पिंटु)

जीहाँ ये है आदित्य नई दुनिया में एक्जीक्यूटिव... जो आये तो थे हमें जबलपुर घुमाने मगर बच्चों के साथ मिलकर हमें मौसी कहने लगे...देखिये जिन्दगी क्या-क्या रंग दिखाती है...बेगाने भी बन जाते है अपने...


(आदित्य श्रीवास्तव)



चलिये विदा दीजिये हमें जबलपुर वालो....


आँखों में नमी होठों पे मुस्कान है,

क्या यही जबलपुर की पहचान है...




ये मैं हमारे कोच के साथी स्टीफ़न एंड बिलियर्ड हार्वे फ़्राम अमेरिका...


सुनीता शानू









मौसी


बरसों से प्यासी धरती पर
उगा हो जैसे नन्हा पौधा,
बड़े प्यार से उसने मुझको
मौसी माँ जैसी जब बोला...
हुई सरसराहट कानों में तब
जैसे अमृत सा रस घोला,
लगा अंक से मैने उसको
जब प्यार से बेटा बोला...
एक जन्म का नही ये रिश्ता
लगता है सदियों पुराना,
जन्मा नही है तेरी कोख से,
किन्तु माँ मैने तुझको माना...

सुनीता शानू ( मन की एक भावना है जिसे मैने एक छोटी सी कविता का रूप दिया है)

Tuesday, April 8, 2008

धरती का गीत


धरती पर फ़ैली है,सरसों की धूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी ॥


फ़ूट पड़े मिट्टी से सपनों के रंग
नाच उठी सरसों भी गेहूं के संग।
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे अंग।


धरती के बेटों की आन-बान भूप-सी
धरती बन आई है,नवरंगी रूपसी॥


बाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
आँखों में कौंध गया, बिजली-सा नेह।
सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।


धरती-सी गृहणी की,कामना अनूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी॥


धरती ने दे डाले अनगिन उपहार,
फ़िर भी मन रीता है,पीर है अपार।
सूने हैं खेत और, खाली खलिहान-
प्रियतम के साथ बिना जग है निस्सार।


धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥

सुनीता शानू

किस पर किया विश्वास


ऎक कविता के माध्यम से कुछ कहना चाहा है...देखिये सफ़ल भी हुई हूँ कि नही...

फ़िर चली आँधी कि
उड़ चले पत्ते सभी
चरमराया पेड़ ऒ
कुछ डालियाँ भी टूटे तभी


चीं-चीं, चीं-चीं की चीत्कार
जब फ़ैली आकाश में
हो गई तत्काल गुम
किसी अविश्वास में

जैसे गिरा घोंसला उसका
टूट गया विश्वास तभी
टूट गये बंधन के धागे
और मोह के पाश सभी


क्रन्दन तब करती गौरैय्या
थक निढाल होकर बोली
ए आश्रयदाता बतला दे
तूने क्यों ये करी ठिठोली

आश्रय का वादा देकर
मुझे बुलाया था कभी
एक जरा सी आँधी से
भूल गया तू बात सभी


सुनीता शानू

Wednesday, April 2, 2008

एक गज़ल



अब ये रस्में-मोह्ब्ब्त भुला दीजिये
उनके ख्वाबों को दिल से हटा दीजिये




अश्क आँखों में देकर ये कहते हैं वो
चाहतों को भी अपनी भुला दीजिये


कल ही महफिल में रुसवा किया था हमें
अब वो कहते है हमको वफ़ा दीजिये


अपने ही जिस्म में अब न लगता है मन
उनके दिल को कोई घर नया दीजिये


और कब तक कोई राह देखे भला
जिस्‍म को खाक में अब मिला दीजिये



सुनीता शानू

Thursday, March 27, 2008

पलकें बंद हो गई...


आँखों ने आँखों से कह दिया सब कुछ

मगर जुबाँ खामोश रही...

जब दिल ने दिल की सुनी आवाज़

धड़कन खामोश रही...

आँखो के रास्ते दिल में उतरने वाले

ऎ मुसाफ़िर

अब बाहर जा नही सकते

तुम्हारे प्यार की खुशबू से तृप्त

उठती गिरती साँसे देख कर

अब पलके बंद हो गई...

सुनीता शानू

Monday, March 24, 2008

एक कविता....

दोस्तों कल एक कविता सुनाने का मौका मिला ...आपके सामने प्रस्तुत है...


आज़ादी की होली

पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानों ने होली


आज सजा है सर पे उनके बलिदानो का सेहरा
चाँद सितारों से मिलता है नादानों का चेहरा
आँख में आँसू आ जाते है देख के सूरत भोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


महक उठी है आजादी हर धड़कन हर साँस में
छा गई है मस्ती एसी आज़ादी की आस में
नया सवेरा लाने निकली परवानो की टोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


मर कर भी जिन्दा रहते है देश पे मिटने वाले
सर पर बाँध कफ़न आये है आज़ादी के मतवाले
आज लगा दी सबने अपने अरमानो की बोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


आज चले है माँ के प्यारे देश की आन बचाने
जान हथेली पर ले आये आजादी के परवाने
हँसते-हसँते चढ़े फ़ाँसी पर हिम्मत भी न डोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


सुखदेव,भगत सिंह,राजगुरू ने जो दिया बलिदान
ऋणी रहेगा सदा तुम्हारा सारा हिन्दुस्तान
नमन उन्हे है जिन वीरो ने खेली खून की होली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


सुनीता शानू

Saturday, March 22, 2008

फ़ागुन आया झूम के...

दोस्तों होली का त्यौहार आप सबके जीवन में खुशियाँ लाये यही मनोकामना है...

भंग की तरंग

ढोलक और मॄदंग

होली के रंग

नाचे संग-संग .....




फ़ागुन के दोहे


डाल-डाल टेसू खिले,आया है मधुमास,
मै हूँ बैठी राह में,पिया मिलन की आस।
हो रे पिया मिलन की आस



फ़ागुन आया झूम के ऋतु वसन्त के साथ
तन-मन हर्षित हों रहे,मोदक दोनो हाथ
हो रे मोदक दोनो हाथ



मधुकर लेके आ गया, होठों से मकरंद
गाल गुलाबी हो गये, हो गई पलकें बंद।
हो रे हो गई पलकें बंद



पिघले सोने सा हुआ,दोपहरी का रंग
और सुहागे सा बना,नूतन प्रणय प्रसंग
हो रे नूतन प्रणय प्रसंग



अंग-अंग में उठ रही मीठी-मीठी आस
टूटेगा अब आज तो तन-मन का उपवास
हो रे तन-मन का उपवास



इन्द्र धनुष के रंग में रंगी पिया मै आज
संग तुम्हारे नाचती , हो बेसुध बे साज
हो रे हो बेसुध बे साज



तितली जैसी मैं उड़ू चढ़ा फ़ाग का रंग
गत आगत विस्मृत हुई,चढी नेह की भंग
हो रे चढ़ी नेह की भंग



रंग अबीर गुलाल से,धरती भई सतरंग
भीगी चुनरी रंग में,हो गई अंगिया तंग
हो रे हो गई अंगिया तंग



गली-गली रंगत भरी,कली-कली सुकुमार
छली-छली सी रह गई,भली भली सी नार
हो रे भली-भली सी नार



सुनीता शानू




Friday, March 7, 2008

मै और तुम

एक औरत और नदी में क्या अन्तर है?
क्या उसका अपना अस्तित्व बाकी रहता है समुन्दर रूपी पुरूष से मिलकर ?

क्या विवाह के बाद भी वह, वह रह पाती है जो पहले थी?
क्यों उसे ही बदलना पड़ता है, यहाँ तक की जन्म से जुड़ा नाम तक बदल जाता है...





-मै और तुम-

-बँध गये हैं एक अदृश्य बंधन में...

-कितने शान्त और गम्भीर हो तुम-

-समन्दर की तरह...

-और मै शीतल,चँचल,-

-बहती नदी सी-

- बहे जा रही हूँ निरन्तर...

-और तुम मेरी प्रतिक्षा में खड़े हो-

-अपनी विशाल बाहें फ़ैलाये-

-मेरे आते ही तुम्हारी भावनाये-

- हिलोरे लेने लगती है-

-लहरों की तरह-

-और मुझे सम्पूर्ण पाकर...

-हो जाते हो शान्त तुम भी-

-मै जानती हूँ...

-मै अब तक मै ही हूँ-

-किन्तु...

-जिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-

-तुम बन जाऊँगी-

सुनीता शानू



Thursday, February 14, 2008

वेलन्टाईन डे...

वेलन्टाईन डे पर संत वेलनटाईन को मेरी श्रद्धांजली....


रोक सकेगा कौन इन्हे
ये आंधी और तूफ़ान है
चल रहे है भेड़ चाल ये
आजकल के नौजवान है...

पहले पहल ये परफ़्यूम देकर
अपना प्यार दिखाते है
किस डे पर भी किस देकर
सबसे प्यार जताते है
हग डे पर भी गले मिलकर
बन जाते है अपने से
वेलन्टाईन डे पर इनके
पूरे हो जाते है सपने

प्यार घूमाना प्यार फ़िराना
प्यार ही इनका मुकाम है
रोक सकेगा कौन इन्हे
ये आँधी और तूफ़ान हैं

बीत गया समय पुराना
आज चलन है इनका
भूल गये सब रिश्ते-नाते
नया दौर फ़ैशन का
गर्ल फ़्रेंड की जी हुजूरी
यही कर्तव्य है इनका
एक छूटी दूजी बनाई
यही धर्म है इनका

माँ की डाँट पिता का पहरा
इनके लिये अपमान है
रोक सकेगा कौन इन्हे
ये आँधी और तूफ़ान है

बालो पर जो हाथ घुमाये
वो माँ इन्हे न भाती है
अनुशासन की सीख दे
वो बात इन्हे सताती है
कैसे गुरू कहाँ का चेला
सब बने संगी-साथी है
जैसी दिक्षा वैसी शिक्षा
सब गुड़-गौबर-माटी है

खुशी मनाएं वेलन्टाईन की
जिसने दिया बलिदान है
रोक सकेगा कौन इन्हे
ये आँधी और तूफ़ान है...

सुनीता शानू

Sunday, January 27, 2008

कुछ पुरानी यादें...

कुछ पुरानी यादें...धूमिल न हो जाये...आईये ले चले कुछ हँसने -हँसाने...
आज हम भी कोशिश करते है ... तस्वीरे क्या बोलती है...

कौन कहता है कि मुझमे लचक नही...
मुसाफ़िर भाई ध्यान से कहीं कमर में झटका न आ जाये...:)




खलिश भाई यह आपके लिये ही है...


देखिये तस्वीर अच्छी आनी चाहिये...:)




गुरूदेव प्रणाम!







न न न गुरूदेव से पंगा हर्गिज नही...





नही वापिस न दें आपके लिये ही है...



राजीव भाई अब आपके साथ पंगा कौन लेगा...



जाने आपने क्या जादू किया है नीलिमा जी सब हँस रहे है...


अगर कमर में दर्द है तो पहले बताते न विनोद भाई...:)







माईक दूर रहने से आवाज सही नही आती...:)





घबरा मत अक्षय बेटा अच्छी तरह से पढ़ यहाँ किसी को कविता याद नही है सब देखकर पढेंगे...:)




कैसी बातें करते है आप भी कविता हाथ में है मगर देख नही रहा...:)





मेरे तो हाथ में बहुत तेज़ दर्द हो गया रात भर कविता लिखते-लिखते


हम किसी से कम नही है भैया देख लेना...






न न न ससुर जी से मजाक नही


रे निखिल क्या सारी डायरी आज ही पढोगे?


मै भी सुना ही दूँ क्या एक कविता...





समझ नही आ रहा क्या लिखा है...:)


क्षमा गुरूदेव

क्या सुनना पसंद करोगे?



यहाँ भी पंगा...:)




यह माईक मुझे बेहद पसंद है...


ध्यान से सुनिये...


एक और कविता की गुजारिश है...



हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कृपया तालियाँ अवश्य बजायें


क्षमा करें संतोष जी


गुरूदेव आपके काव्य-पाठ में पटाखे क्यूँ छोड़े जा रहे थे?






देखा आपका भी जवाब नही कुँवर साहब...आपकी आवाज ने सबको बाँध दिया

अंतिम सत्य