एक डोर से बँधी मैं,
पतंग बन गई
दूर-बहुत-दूर...
आकाश की ऊँचाइयों को नापने,
सपनों की दुनिया में,
उड़ती रही...
इस ओर कभी उस ओर
कभी डगमगाई कभी सम्भली
फ़िर उड़ी
एक नई आशा के साथ,
इस बार पार कर ही लूँगी
वृहत् आकाश
पा ही लूँगी मेरा सपना
मगर तभी,
झटका सा लगा...
एक अन्जानी आशंका,
मुड़कर देखा
वो डोर जिससे बंधी थी
वो डोर जो मजबूत थी
बिलकुल मेरे
उसूलों
मेरे दायरों की तरह
फ़िर सोचा
तोड़ दूँ इस डोर को
आख़िर कब तक
बंधी रहूँगी
इन बेड़ियों में
जो उड़ने से रोकती हैं
कि सहसा
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना संतुलन खो बैठी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर, कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
सभी क्रूर हाथों ने
कराह आई
काश! डोर से बंधी होती
किसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ
सुनीता चोटिया (शानू)
प्रतीकात्मक, सुलझी हुई, भावप्रद रचना
ReplyDeleteसुनीता जी आपने भरतीय सांस्कृतिक परंपराओं के नाजुक रिश्ते में बंधी नारी का जो चित्रण इस कविता में किया है वह सचमुच काबिल ए तारीफ है । आपने डोर में बंधी पतंग के इठलाते स्वरूप का एवं कटी पतंग का सहज व सजीव चित्रण किया है वह दिल को छू लेने वाला भाव है । शैन: शैन: आपकी कविता निखरते जा रही है, आपको पढने व टिप्पणी करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है यह सब आपके भावनात्मक चिंतन व प्रयास का प्रतिफल है । लिखती रहें . . . शुभकामनायें ।
ReplyDeleteबहुत खूब!!! प्रतीकात्मक लहज़े का सफ़ल प्रयोग।
ReplyDeleteबधाई व शुभकामनाएं
वाकई मे आप अच्छा लिखती है
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखती है
ReplyDeleteकाश! डोर से बंधी होती
किसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
भारतीय सोच और गरिमा आपके लेखन से झलकती है
bahut sahi aur saarthak chitran hai.. ek bhartiya naari ki manostithi ka..jo udanaa bhi chahti hai khule aakash mein aur darti bhi hai bandhano ko todne se...jab udaan bhar rahi hoti hai to ye shikayat rahti ai use.. ki bandhan mein bandhi hun kaise udun.. aur jab udane ko khula aakash milta hai.. to darr jaati h unchaai par jaakar girane se.. par kya ye sahi hai.. agar sachmuch udaan bharni hai aakash naapana hai to udaan to bharni hi hogi..maryaadayon mein rahna bahut achi baat hai .. par inka darr sirf naari hriday ko kyun..
ReplyDeleteaapki ye panktiyan..
कि सहसा
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना संतुलन खो बैठी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर, कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
सभी क्रूर हाथों ने
कराह आई
काश! डोर से बंधी होती
किसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ
.. yahan fir wahi ehsaas dila diya gaya ki naari ko apini seemaon mein rahan chahiye... wahi sadiyon se chali aa rahi maanyata. ye darr kyun kisliye.. kyun aawshyakta h kisi tathakathit sammanit haathon mein sanrakshan paane ki.. kya naari jeewan patang jaisa hai.. jiska bina dor ke koi astitwa nahi.. bina dor ke maatr jameen par pada ek kaagaj ka tukda..nahi ye sahi nahi.. mujhe lagta hai naari pane aap mein itni sashakt hai use kisi aalamban kee jaroorat nahi..wo patang ki tarah aashrit rahe kya ye thik hai.. use to panchhi jaisa hona chahiye.. khud pani unchaia tay kare .. apna aaksah.. aur ek tukda kyun aakash ka jab saara aakash hamaara hai..
Kawita sachmuch bahut achhi hai.. prwaah hai bhaawnaaon kaa.. par agar maine kuch jyada kah diya to maafi chahungi..
सुंदर रचना ।
ReplyDeleteशानूजी क्या करतब दिखा रही हैं, देसी डोरी की बात कर रही हैं, पर पतंग अमेरिकन उड़ा रही हैं। सुखी संबंधों का राज तो यह है कि हर पति को खुद को बंदर मानना चाहिए, बीबी को मदारी मानकर अपनी डोर उसके हाथ में थमा देनी चाहिए। फिर मदारी के हाथ में हो सारी करामात। फिर कोई टेंशन नहीं होगा। क्षमा करें, मैं व्यंग्यकार हूं मोटी बुद्धि कविता की गहराईयां नहीं समझता, बंदर लंगूर, मदारी टाइप की बातें जल्दी समझता हूं।
ReplyDeleteआपका संदेश ग्रहण करने योग्य है, खास तौर पर नयी पीढ़ी के लिए। मैं तो नयी पीढ़ी का हूं नहीं। मैं तो पुराणकालीन हूं
आलोक पुराणिक
nice and realistic and to the point
ReplyDeleteअच्छी और भावप्रद कविता ।
ReplyDeleteमान्या जी आपने शायद मेरी कविता ठीक से नही पढी मै उस नारी का जिक्र कर रही हूँ जो पहले से ऐक डोर से बंधी हुई है जिसका अपना एक सम्पूर्ण आकाश है मगर जब वो बाहर की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने घर परिवार पर ध्यान नही देती और आधुनिकता का जामा पहनने की कोशिश करती है उसका क्या हश्र होता है,ये तो आप भी मानती है ईश्वर ने हमेशा से पुरूष को नारी का सरक्षंक बनाया है वही भक्षक है और वही सरक्षंक
ReplyDeleteलाख कोशिश करके भी आप इस बात को मना नही कर सकती,क्या कर सकती है ऐक अकेली नारी जब कटी पतंग की तरह सैंकडो़ हाथ उसे लूट रहे होंगे,..क्या बचेगा अदालत का दरवाजा या बदनामी,..उड़ने से मना मैने नही किया मगर उतनी ही दूर तक जहाँ तक मान-मर्यादा बनी रहें,..कि मै अपने बच्चो और पति (मेरी डोर और मेरी चरखी) से बधीं रहूँ..बाकी अपना-अपना नजरिया है,मै नारी बंधन के खिलाफ़ हूँ मगर आज की फ़ैशन परेड में शामिल भी नही...
आपको मेरी कविता अच्छी लगी बहुत-बहुत शुक्रिया
सुनीता(शानू)
मैं आपके ब्लौग पर पहली बार आया और आपकी पहली बार कविता पढी. मन को कहीं गहरे तक छू गयी.
ReplyDeleteनारी मन की भावनाओं को बहुत ही स्पष्ट सम्वेदना के साथ व्यक्त किया है आपने.
अच्छी रचना हेतु बधाई.
अरविन्द चतुर्वेदी
भारतीयम्
किसी सम्मानित हाथों में
ReplyDeleteपूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ
अच्छी लगी आपकी कविता ....एक विचार को शब्दों खूबसूरती से ढाला है आपने ...बधाई
भावों को अच्छा शब्द रुप दिया है. फिर भी:
ReplyDeleteहोता मेरा भी अपना आकाश
........
तो फिर सिर्फ डोर की तलाश क्यूँ? छोटी या बड़ी, सम्मानित या गैर सम्मानित-क्या होता!! बात तो तब बनें, जब डोर की जगह पंख की उत्कुंठा बनें. स्वछंद उड़ान-स्वंय का आकाश!!
--बस मेरी सोच है. रचना तो सुंदर बन पड़ी है. कृप्या अन्यथा न लें..
बहुत अच्छी रचना। काश हम सब समझ पाते इस डोर का महत्व।
ReplyDeleteAcchaa likhaa hai .. Sunitaa ji aapne.
ReplyDeletemano stithi kaa acchaa chitran kiyaa hai ...
shubh kaamnaayein
Ripudaman
अभिव्यक्ति की ऊँची उड़ान भरी है
ReplyDeleteबधाई
Sunita ji:
ReplyDeleteBahut khoob.. kavita man ko gahare chhoo gayee.. ek patang ko maadhyam banaa kar aapne naari man ka behad sundar chitran kiya hai.. aapki har nayee kavita pahli kavita se jyada bhavnatmak hoti jaa rahi hai.. sundar rachna ke liye badhai.
कविता बहुत अच्छी लगी......बधाई!
ReplyDeleteपतंग की उड़ान चरखी और डोर की इतनी मोहताज लगी....कि इस उड़ान में कोई आकर्षन नहीं.....उड़ने के और भी तरीखे हैं.....नोचने वालों के हाथों में आये बिना....
आधुनिक कविता-लेखन में आपका प्रयास सराहनीय है। इस तरह का प्रयास सभी समकालीन कवियों को करना चाहिए ताकि कोई यह न कह सके कि इस कवि/कवयित्री ने नई कविताएँ नहीं लिखा/लिखी। और किसी भी तरीके से आपकी यह रचना अतुकान्त कविता में पहला प्रयास नहीं लगती। जैसे प्रतीकों का इतना सटीक प्रयोग-
ReplyDeleteवो डोर जिससे बंधी थी
वो डोर जो मजबूत थी
बिलकुल मेरे
उसूलों
मेरे दायरों की तरह
कि सहसा
ReplyDeleteएक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना संतुलन खो बैठी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर, कभी उधर
bahut hi achhi panktiya hain. bahut khoob.
काश! डोर से बंधी होती
ReplyDeleteकिसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ
naari man ka yatharth chitrann
good,
ReplyDeleteसुनीता जी, कविता बहुत सुंदर है। अपने विचारों को पाठकों तक पहुँचाने में आप पूर्णरूपेण सफल हैं। जहाँ तक आपके विचारों से सहमति का प्रश्न है, सीमायें या मर्यादायें तो सभी के लिये आवश्यक हैं फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष। प्रकृति ने उन्हें परस्पर पूरक बनाया है और दोनों को एक दूसरे के सहारा लेना ही पड़ता है। अतः किसी को श्रेष्ठ या सशक्त और दूसरे को कमजोर मानना, इस सहअस्तित्व में गतिरोध उत्पन्न करने के समान है।
ReplyDeleteसुनीता जी..बेहद भावपूर्ण अभिव्य्क्ति है कविता की..बडा ही असरदार और यथार्थ वादी चित्रण..कविता बहुत अच्छी है..
ReplyDeleteमन कभी कभी भटक जाता है क्योंकि मन चंचल है. आदमी और जानवर में सिर्फ़ यही फ़र्क है कि इन्सान बन्धनों को स्वीकार कर अपनी सीमा में रह कर विचरता है... और जानवर किसी सीमा को नही मानता वह किसी के खेत में घूस कर उसे उजाड सकता है.
ReplyDeleteनारी के लिये तो एक कदम गलत और फ़िर सब गलत ही गलत...
a woman with past has no future
बहुत सुन्दर भाव संकल्प और दियाबोध वाली कविता है आप की
sunita ji,
ReplyDeleteit was a nice poem composed by you, good style of writing and cultural approach, i appriciate your views and i also do agree. but i have my limits to say something more because being a man i would considered as against the freedom of woman being. at my part mutual understanding and love should represant "dor" and "patang" in married life. moreover without love no need to bind yourself with any "dor" or "charkhi"
आशा का विषय आशा की ही तरह होता है…पर इसे आशा की संतुष्टि के सिवा कुछ और चाहिए भी नही होता है… यह कविता उसी स्तर को छू गई बहुत सुंदर चित्रण किया है…>
ReplyDeleteशानू जी, कविता बहूत ही सुन्दर बन पड़ी है. पतंग और डोर के ज़रिये आपने अपनी खुशियों का इज़हार किया है.इनको पढ़ा तो एक सम्मान की भावना जगी.
ReplyDeleteपर विचारों के धरातल पर मैं आपसे सहमत नही हूं.इस चरखी और डोर का बन्धन
बहुधा ज्यादा कष्टप्रद होता है नारीत्व के लिए.आज की नारी की उड़ान डोर से कटी पतंग नही बल्कि उस सतर्क पंछी की तरह है, जो अपनी मंजिल जानती है.
--Dr.RG
सुलझी हुई चाहत और उसकी अभिव्यक्ति- दोनों ही अच्छी हैं
ReplyDeletebahut hu sundar likha hai aapne sunita ....aapka likha hamesha ek nayi soch liye hota hai ,...likhti rahe ...thanks
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति है। मन की व्यथा को बड़े ही सुंदर ढंग से उजागर करती हुई, सुंदर शब्दों और प्रतीक के सहारे......बहुत सुंदर!
ReplyDeleteOh.. Shaanoo Ji Hum kya kahein,
ReplyDeleteAb to aap ka fan club join Karna hi padega.
Aap ki vichaar unnat hain..
सुनीता जी , आपने मुझसे शिकायत की कि मैं आपके ब्लौग पर नहीं आता । दर-असल बात यह है कि मुझे आपके ब्लौग का पता मालूम नहीं था। आज गिरि जी से इसका पता लेकर इधर आया हूँ। आते हीं आपकी कविता से मिलन हुआ , तो मन प्रसन्न हो गया। अपनी बात कहने के लिए आपने प्रतीकों का जो प्रयोग किया है , वह काबिल-ए-तारीफ है। बहुत हीं खुबसूरती से आपने अपनी बात कह दी है। और क्या कहूँ , इतने बड़े-बड़े महानुभाव मेरे से पहले टिप्पणी दे चुके हैं । मैं इनके बीच अपने आप को कुछ ज्यादा कहने के योग्य नहीं मानता।
ReplyDeleteकविता बहुत सुन्दर है शानू जी
ReplyDeleteभावों को बहुत सहजता से अभिव्यक्त कर लेती हैं आप यह साधारण बात नहीं है
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
Excellent.बहुत ही ख़ूबसूरती से आपने एक नारी का चित्रण किया है
ReplyDelete