मन व्यथित जब ढूँढ रहा था,
निज शाम-सवेरे दर तेरा,
क्यूँ आड़े-तिरछे चित्र बना,
दिगभ्रमित किया ओ श्याम-सखा...
बाँध हृदय को प्रेम-पाश में,
हुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खड़े हो श्याम-सखा...
तन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
मन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
आशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द-जाल मे ओ श्याम-सखा...
मैं वीणा तुम स्वर हो मेरे,
मैं पुष्प तुम सुगंध हो स्वामी,
मन वीणा को झंकृत करके,
कहाँ गये तुम श्याम-सखा...
आज मुझे तुम अंग लगा लो,
विरह-वेदना से मुक्त करो,
कहो कैसे मैं रह पाऊंगी,
तुम बिन बिरहन श्याम-सखा...
सुनीता(शानू)
निज शाम-सवेरे दर तेरा,
क्यूँ आड़े-तिरछे चित्र बना,
दिगभ्रमित किया ओ श्याम-सखा...
बाँध हृदय को प्रेम-पाश में,
हुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खड़े हो श्याम-सखा...
तन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
मन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
आशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द-जाल मे ओ श्याम-सखा...
मैं वीणा तुम स्वर हो मेरे,
मैं पुष्प तुम सुगंध हो स्वामी,
मन वीणा को झंकृत करके,
कहाँ गये तुम श्याम-सखा...
आज मुझे तुम अंग लगा लो,
विरह-वेदना से मुक्त करो,
कहो कैसे मैं रह पाऊंगी,
तुम बिन बिरहन श्याम-सखा...
सुनीता(शानू)
हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
ReplyDeleteआशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द जाल मे ओ श्याम-सखा...
--बहुत खूब..बढ़िया है. बधाई!!
अच्छी कविता है ...मनोभावों को सरल भाषा में कहा है आपने....बधाई
ReplyDeleteमैं वीणा तुम स्वर हो मेरे,
ReplyDeleteमैं पुष्प तुम सुगंध हो स्वामी,
मन वीणा को झंकित करके,
कहाँ गये तुम श्याम-सखा...
बहुत अच्छा समर्पण व विरह का भाव है।अति सुन्दर रचना है। बधाई ।
बाँध ह्रदय को प्रेम-पाश में,
ReplyDeleteहुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खडे़ हो श्याम-सखा...
बहुत अच्छा ...सुन्दर सरल भाषा में रचना है.....
कविता बढिया बन पडी है। मुझे मुख्यतः यें पंक्तिया पसंद आयी।
ReplyDeleteतन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
मन कैसे मै बाँध सकूंगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
(मेरे विचार से शब्द बहोत हुए और भाव वही दुहराया गया।)
तुषार जोशी, नागपुर
एकदम सरल भाषा में समर्पिता के भाव. सुन्दर रचना, साधुवाद्
ReplyDeleteमन व्यथित जब ढूंढ रहा था,
ReplyDeleteनिज शाम-सवेरे दर तेरा,
क्यूँ आड़े तिरछे चित्र बनाकर,
दिगभ्रमित किया ओ श्याम-सखा...
.............
.............वाह..बडे ही सुन्दर और सरल भाव है..जैसे कोई चित्र खींचा गया हो..शुरुवात की बडी अद्भभुत पंक्तिया है..बधाई..
'महादेवी' की याद ताजा कर गई यह कविता... पर वह श्याम सखा तो बिल्कुल पास ही छिपा बैठा है...
ReplyDeleteबाँध ह्रदय को प्रेम-पाश में,
ReplyDeleteहुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खडे़ हो श्याम-सखा...
प्रेम और विरह की पीड़ा का यह नया अंदाज अच्छा लगा। सच में प्रेमी के संग होते हुए भी उसका मौन तन्हाई का सा आभास देती है...
बहुत ही सुन्दर कविता! बधाई!!!
बाँध ह्रदय को प्रेम-पाश में,
ReplyDeleteहुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खडे़ हो श्याम-सखा...
Bahut hi sunder likha hai Sunita Ji,,,,
Aapki lekhni mein har bhav ubharkar aata hai.
Badhayeee. Likhti rahiye....
सामान्यतयाः आजकल के कविताओं के सभी पद स्तरीय नहीं होते, मगर यह कविता इस बात को झूठलाती है। एक प्रेयसी के प्रिय के रूठने सभी प्रकार के भावों-प्रतिभावों को बहुत कम शब्दों में समेटा गया है। मुझे आज इस कविता को पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। जहाँ तक मुझे लगता है, कवयित्री सुनीता चोटिया के आगमन से ब्लॉगर कवियों का मार्ग प्रशस्त होगा तथा पाठकों को ओरिज़नल कविता पढ़ने को मिलेगी।
ReplyDeleteसुनीता जी,
ReplyDeleteसुनीता जी आपने स्तरीय प्रयाश किया है धन्यवाद तुषार जोशी जी के विचारो से मै भी सहमत हू
तन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
ReplyDeleteमन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
इस पंक्ति में कुछ तो ऐसा है जो यहाँ पुन: लिखने पर मजबूर किया…
साथी तो साथ रहता है नयनों के महफिल में,
कैसे सजाऊँ खुद को या हाथों से ही सवार दूं उसको!!
बाँध हृदय को प्रेम-पाश में,
ReplyDeleteहुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खड़े हो श्याम-सखा...
bahut bhaav poorna rachanaaa hai sunitaa ji.. aapki kavitaen lagaatar achchii hi hoti jaa rahi hain.. bahut sundar!
बाँध ह्रदय को प्रेम-पाश में,
ReplyDeleteहुए निष्ठुर क्यूँ आज प्रिये,
वशीभूत कर शब्द-जाल में,
क्यूँ मौन खडे़ हो श्याम-सखा...
हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
आशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द जाल मे ओ श्याम-सखा...
सुन्दर सरल भाषा मेँ आपने साँवरे का आवाहन किया है....
कितना भी निष्ठूर क्योँ न हो खिँचा चला आयेगा
नया भाव... बेहतर रचना.
ReplyDeleteतन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
ReplyDeleteमन कैसे मै बाँध सकूंगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
भाव मन को पूर्णतः बांध लेने मे सक्षम हैं,कोमलता से.
बधाई
सादर
प्रवीण
बहूत ही सुंदर कविता है सुनीता जी, भावो को अद्भूतरुप से प्रकत किया है विशेष रुप से निम्न पक्तियों के लिये तो आप बधाई की पात्र है
ReplyDeleteतन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
मन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
तन तो फ़िर भी ढाँप ही लूँगी,
ReplyDeleteमन कैसे मैं बाँध सकूँगी,
तुझ बिन बरसे नैन-बावरे,
दरस दिखा ओ श्याम-सखा...
khoobsurat...
मन व्यथित जब ढूंढ रहा था,
ReplyDeleteनिज शाम-सवेरे दर तेरा,
क्यूँ आड़े तिरछे चित्र बनाकर,
दिगभ्रमित किया ओ श्याम-सखा...
बहुत खूब.....
हर-पल तुमसे जो कहती हूँ,
आशय उसका तुम न समझे,
शब्द मेरे ही फ़ँस जाते है,
शब्द जाल मे ओ श्याम-सखा...
अति सुन्दर रचना है।
बधाई
"वशीभूत कर शब्द-जाल में,
ReplyDeleteक्यूँ मौन खडे़ हो श्याम-सखा..."
सहज भावभियक्ति
सुन्दर कृति
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
शानू तुम्हारी कविताओं में भाव हैं, अभिव्यक्ति है। लय भी कहीं कही अच्छा है, किंतु थोड़ा सुधार की आवश्यकता है। शब्द शिल्प में कहीं कहीं भटकाव अ जाता है। हे श्याम सखा अच्छी बन पड़ी है। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं। आशा है अन्यत्र नही लोगी। रुकना मत, बढ़ी चलो...
ReplyDeleteकवि कुलवंत सिंह
मुझे नही पता था की आप लिखती भी है और वो भी इतना सार गर्भित इतना सुन्दर,माफ़ कीजीये्गा अभी जल्दी मे हू किसी दिन लौट कर आने के बाद सारी पढूगा.
ReplyDeleteक्या बात कही है - तन तो फिर भी ढांप ही लूँगी,मन कैसे मैं बांध सकूँगी । साधुवाद । यूँ ही लिखते रहिये ।
ReplyDeleteBehad behad achi hai rachanaye, after reading i feel some changing
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