चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, July 31, 2007

दिल फेंक आशिक




है दिल फेंक आशिक जमाने में बहुत,
अपने दामन को बचा कर रखिये।




न ठहर जाये अश्क आँखों में कहीं,
अपनी पलकों को झुका कर रखिये।




इश्क में मिलती है बस तनहाई यहाँ,
अपने दिल को गुलशन बना कर रखिये।




गम में रोना न पड़ जाये उम्र भर तुझको,
उस सितमगर को मेहमां बना कर रखिये।




बेवफ़ा हैं ये जमाने के रहनुमा सारे,
दिल के आईने में खुद को सजा कर रखिये।





ऎसा न हो लग जाये चोट दिल पर कोई,
अपने दिल को पत्थर सा बना कर रखिये।


बदनाम न कर दे दुनियाँ की जालिम नजरे,
खुद को दुनियाँ की से नजरों से बचा कर रखिये।




सुनीता शानू




Monday, July 30, 2007

है कौन जिसे प्यास नही है....



है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,
जीने की किसे आस नही है...

प्यास जहाँ हो चाहत की,
जिन्दा दफ़नाएं जाते है,
हर दिल में मुमताज की खातिर,
ताज़ बनाएं जाते है...
विरान है वो दिल जिसमे मुमताज नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,

प्यास जहाँ हो पिया मिलन की
वहाँ स्वप्न सजोंये जाते है
प्रियतम से मिलने की चाहत में
नैन बिछाये जाते है
प्यासे नैनो में आँसू की थाह नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो बस जिस्म की
दामन पे दाग लगाये जाते है,
कुछ पल के सुख की खातिर
हर पल रूलाये जाते है
माटी के तन की बुझती प्यास नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो दौलत की,
कत्ल खूब कराये जाते है,
अपने निज स्वार्थ की खातिर,
दिल निठारी बनाये जाते है...
खून बहा कर भी मिलती एक सांस नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,

प्यास जहाँ हो शौहरत की,
रिश्ते भुलाये जाते हैं,
एक नाम को पाने की खातिर,
हर नाम भुलाये जाते हैं
भाई से भाई लड़े रिश्तों में आँच नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

प्यास जहाँ हो वतन की,
वहाँ शीश नवाये जाते हैं,
धरती माँ के मान की खातिर,
सर कलम कराये जाते हैं
आज़ादी की रहती किसको आस नही है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है

है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है
जीने की किसे आस नही है॥


सुनीता(शानू)

Saturday, July 28, 2007

एक अजनबी




चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा,
क्यूँ कोई दिल में आज मेरे धड़कने लगा…


किससे मिलने को बेचैन है चाँदनी,
क्यूँ मदहोश है दिल की ये रागिनी,
बनके बादल वफ़ा का बरसने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



गुम हूँ मै गुमशुदा की तलाश में
खो गया दिल धड़कनो की आवाज़ में
ये कौन सांस बनके दिल में महकने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



हर तरफ़ फ़िजाओं के हैं पहरे मगर,
दम निकलने न पायें जरा देखो इधर,
जिसकी आहट पर चाँद भी सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा



रात के आगोश में फ़ूल भी खामोश है
चुप है हर कली भँवरा भी मदहोश है
बन के आईना मुझमें वो सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा




ना मै जिन्दा हूँ ना मौत ही आयेगी
जब तलक न तेरी खबर ही आयेगी
बनके आँसू आँख से क्यूँ बहने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा




सुनीता(शानू)

Friday, July 20, 2007

क्यों आते है गम हर रोज






क्यों आते है गम
हर रोज
जिन्दगी में
क्योंकि तुम बुलाते हो,

मगर कैसे
कौन चाहेगा दुखी होना
गम से सराबोर जिन्दगी
किसे पसंद है

मगर यही सच है
तुम्ही बुलाते हो
याद रखते हो हर पल
पिता का वो चाँटा
जो लगाया था तुम्हारी नादानियों पर,
या गुरू की वो फ़टकार
जो कभी लगाई थी तुम्हारी शैतानियों पर,


मगर भूल जाते हो,
पिता के दुलार को,
गुरू के आशीर्वाद को,
जो दिया था कभी
तुम्हारी हर कामयाबी पर,


हर कड़वी बात याद रहती है
अपने अज़ीज की तरह
सोचो
जिससे इतनी चाहत है
हर पल अहसास है जिसका
वो भला क्यों नही आयेंगे

खड़े रहेंगे तुम्हारे दरवाजे पर
मेहमान बनकर
जब भी बुलाओगे
चले आयेंगे
आने का प्रयोजन
मै तुम्हारे हर पल साथ हूँ
तुम भी तो मुझे भूलते नही
खुशी के क्षणों में भी
तो मै बेवफ़ा कैसे हो सकता हूँ
जब भी बुलाओगे दौड़ा चला आऊँगा


और आना कैसा मै तो रहता हूँ
दिल में तुम्हारे
जरा गौर से देखो
गमों ने तुम्हारे दिल को छलनी कर दिया है
जैसे कि दीमक
मन की दिवारों को खा गई हो
आलस्य बढ़ता जाता है,
चारों और बेचारगी ओर तनहाई का आलम है


ये सब मेरे मित्र है
जब भी आता हूँ
इन्हे भी साथ ही लाता हूँ


इतना बेगैरत नही हूँ


"जब बुलाते हो
तब ही आता हूँ"

सुनीता(शानू)



Monday, July 16, 2007

चलिये थोड़ा हास्य हो जाये



ये कविता हास्य-व्यंग्य पर आधारित है
कृपया इसे अन्यथा ना लिया जाये हँसी के साथ पढ़ा जाये और हँसगुल्ले की तरह उड़ा दिया जाये...

कह रहे वृतान्त सारा,
सुन लिजे कान लगाय,
ब्लागर मिटवा में गुरूवर,
अब ना हम जा पाय।

अब ना हम जा पाय,
वहाँ बस होती टाँग खिंचाई,
मेल-मिलाप तो दूर ही समझो,
रिश्तों में भी चतुराई।

रिश्तों में भी चतुराई,
हमसे न देखी जाये,
हम ठहरे सत्संगी भैया,
कुछ भी समझ ना पाये।

कोई आये बनारस से,
तो कोई नाथ के द्वारे,
कोई आये गुजरात से,
तो कोई अहमदाबाद से प्यारे।

हम तो समझ न पाये,
क्यों होती गुटबन्दी,
चौबारे पर बैठके,
क्यों बाते करते मंदी।

क्यों बातें करते मन्दी,
फ़ुनवा को कान लगाय,
बातों में भी हेरा-फ़ेरी,
हम तो समझ न पाये।

आपस में परिचय कर,
बैठे सीट लगाये,
तभी एक कौने से,
वेटर जी आये।

एक दूजे की शकल देख-कर,
सब ही बहुत चकराये,
जब वेटरजी ने आकर,
सबको मीनू पकड़ाये।

झाँका-झाँकी शुरू हुई जब,
सब अपनी शकल छुपायें,
वेटर जी भी देख सभी को,
मंद-मंद मुस्काये।

मंद-मंद मुस्काये गुरूवर,
हम तो शर्म से गड़ ही जाय,
जैसे ही आये प्रबंधक,
सबने वेटर को दिये बताय।

कॉफ़ी पीकर जैसे ही हम,
बैठे कुछ सुस्ताने,
तभी पलायन किया जाये,
लगे सभी बतियाने।

क्या बतलाये हम तुमको.
सोच-सोच कर पछताये
यहाँ से वहाँ दौड़ लगाते,
बहुत ही हम शर्माये।


कलम दिवानी क्या करे,
कोई हमे समझायें,
बिन स्याही के भी देखों,
कैसन चलती जाये।


कैसन चलती जाय गुरुवर,
एसी मारे मार,
ढोल की पोल भी खोल दे,
अंटाचीत भी लाये।

छोड़ बात अधूरी प्रभुजी,
हमतो रहे सकुचाये,
सारा विवरण दे पाते,
वो शब्द कहाँ से लाएं।

गदहा लेखन का काम गुरुवर
तुमही रहे सिखलाये
एक ही गदहा लिखा था हमने
लिख कर हम पछताये

लिख कर हम पछताये,
आहत मित्र किये सभी
पढ़ हमारे गद्य को
हो गई कैसी तना तनी।

हो गई तना-तनी
हमको रहे समझायें
जो कर रहे मन-मौजी
उनको रहे टिपीयाये।

उनको रहे टिपीयाये गुरूवर,
हमसे ना देखा जाये,
तुम भी होगये पराये गुरुवर,
अब ना हम जा पायें।

सुनीता(शानू)

http://sanuspoem.blogspot.com/ का पूण विवरण)

Sunday, July 8, 2007

आधुनिक द्रोपदी (कृपया फ़िर पढ़े)

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी मुझे लगता है ये बहुत जरूरी है कि मै अपनी कविता के बारे में पहले आप सभी को कुछ निवेदन करूँ क्योंकि बहुत से मित्र-गण मेरी बात शायद ठीक से समझ नही पाये है...
...आज दुनिया में कितने लोग एसे है जो राम का नाम रख कर राम की भूमिका निभा रहे है...कितने लोग एसे है जो कृष्ण का नाम रख कर कृष्ण की भूमिका निभा रहे है...कृष्ण के जिस रूप से मै प्यार करती हूँ वो भगवान है मगर इस कविता में जिस रूप का वर्णन है वो सिर्फ़ एक नाम है... कृष्ण नही...यदि कोई कृष्ण भक्त यह कृष्ण का अपमान समझ रहा है तो मै उन सभी से विनती करती हूँ कृपया एसा ना समझे कृष्ण तो मेरे आराध्य है मै भला उनके लिये कुछ कैसे कह सकती हूँ ये उन लोगो के लिये कहा गया है जो सिर्फ़ नाम के कृष्ण है और जब द्रोपदी खुद ही निर्वस्त्र है तो ये नाम के कृष्ण भी क्या कर सकते है...आशा है आप अन्यथा न लेंगे...
मेरी यह कविता हास्य तो नही मगर व्यंग्य जरूर है आज के समाज पर, शायद अपने शब्दो से कुछ समझा ही पाऊँ…

एक गली के नुक्कड़ पर
खड़े हुए थे चार किशोर
मुरलीमनोहर,श्यामसुंदर,
माधव और नन्दकिशोर…

खड़े-खड़े होती थी उनमें
मस्ती भरी बातें,
रोज होती थी चौराहे पर
उनकी मुलाकाते…

तभी गुजरी वहाँ से
एक सुंदर बाला
चाल नशीली लगे कि जैसे
चलती-फ़िरती मधुशाला…

झाँक रहा था बदन
आधे कपड़ो में
जरा नही थी शर्म
उसके नयनो में…

देख प्रदर्शन अंगो का
हुए विवेक-शून्य किशोर
धर दबोचा एक पल में उसको
मचा भीड़ में कैसा शोर…

द्रोपदी ने गुहार लगाई
भूल गये तुम हे कन्हाई

कहा था तुमने हर जनम में,
तुम मेरी रक्षा करोगे
जो करेगा चीर-हरण द्रोपदी का
नाश उसका करोगे…

कृष्ण ने अट्टहास किया
द्रोपदी का उपहास किया…

है कहाँ वस्त्र अंगो पर
जो मै लाज बचाऊँ
तुम खुद ही वस्त्र-हीन हो
कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ…

कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ...

सुनीता(शानू)

अंतिम सत्य