चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, April 8, 2008

धरती का गीत


धरती पर फ़ैली है,सरसों की धूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी ॥


फ़ूट पड़े मिट्टी से सपनों के रंग
नाच उठी सरसों भी गेहूं के संग।
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे अंग।


धरती के बेटों की आन-बान भूप-सी
धरती बन आई है,नवरंगी रूपसी॥


बाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
आँखों में कौंध गया, बिजली-सा नेह।
सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।


धरती-सी गृहणी की,कामना अनूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी॥


धरती ने दे डाले अनगिन उपहार,
फ़िर भी मन रीता है,पीर है अपार।
सूने हैं खेत और, खाली खलिहान-
प्रियतम के साथ बिना जग है निस्सार।


धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥

सुनीता शानू

किस पर किया विश्वास


ऎक कविता के माध्यम से कुछ कहना चाहा है...देखिये सफ़ल भी हुई हूँ कि नही...

फ़िर चली आँधी कि
उड़ चले पत्ते सभी
चरमराया पेड़ ऒ
कुछ डालियाँ भी टूटे तभी


चीं-चीं, चीं-चीं की चीत्कार
जब फ़ैली आकाश में
हो गई तत्काल गुम
किसी अविश्वास में

जैसे गिरा घोंसला उसका
टूट गया विश्वास तभी
टूट गये बंधन के धागे
और मोह के पाश सभी


क्रन्दन तब करती गौरैय्या
थक निढाल होकर बोली
ए आश्रयदाता बतला दे
तूने क्यों ये करी ठिठोली

आश्रय का वादा देकर
मुझे बुलाया था कभी
एक जरा सी आँधी से
भूल गया तू बात सभी


सुनीता शानू

Wednesday, April 2, 2008

एक गज़ल



अब ये रस्में-मोह्ब्ब्त भुला दीजिये
उनके ख्वाबों को दिल से हटा दीजिये




अश्क आँखों में देकर ये कहते हैं वो
चाहतों को भी अपनी भुला दीजिये


कल ही महफिल में रुसवा किया था हमें
अब वो कहते है हमको वफ़ा दीजिये


अपने ही जिस्म में अब न लगता है मन
उनके दिल को कोई घर नया दीजिये


और कब तक कोई राह देखे भला
जिस्‍म को खाक में अब मिला दीजिये



सुनीता शानू

अंतिम सत्य