चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Monday, June 23, 2014

मेरे अल्फ़ाज़ बस मेरे हैं...



दोस्तों फ़ेसबुक पर विचित्र- विचित्र लोग बैठे हैंं, इधर उधर से कुछ भी उठाते हैं और लाइक शेयर बटोरते हैं, अभी एक महाशय  ने कहा कि क्या मै आपके अल्फ़ाज़ से बनी कविता मेरे नाम से पोस्ट कर सकता हूँ तो एक बार मैने सोचा क्या हर्ज़ है करने में, लेकिन मेरे ये अल्फ़ाज़ किसी खास के लिये थे... कैसे मै किसी ओर को अपने नाम से दे सकूंगी? उसने यह भी कहा कि आपकी वॉल पर कम कमैंट आये हैं शेयर भी तीन ही लोगों ने किया। मै अपने नाम से करके देखना चाहता हूँ या यूं समझे की दिखाना चाहता हूँ मुझे कितने कमैंट या शेयर आते हैं। दोस्तों आपका लाइक करना या शेयर करना आपके मेरे शब्दों से होकर गुजरने से कम नहीं है। पाठक को परखने का नहीं समझने का नजरिया चाहिये। लेकिन दिल मेरा है अल्फ़ाज़ मेरे हैं किसी ओर को उसका दायित्व हर्गिज़ नहीं दे सकती। मेरे अल्फ़ाज़ मेरी ही शैली में...

क्यों लगता है ऎसा
सब कुछ है पास मगर
कुछ भी नहीं है...
तू पास होकर भी 
क्यों पास नहीं है...
क्यों लगता है ऎसा
मेरी परछाई भी अब
मुझको डराती है
क्यों एक साँस विश्वास की
खोल देती है मुझको
परत दर परत
क्यों खामोशी आँखों की
साथ नहीं देती
मेरी तेज़ चलती जुबाँ का
क्यों लगता है ऎसा
हर लम्हा महफ़िल सा है
फिर भी तनहा है।
शानू

Friday, March 14, 2014

अधिकार या...




बनिये की बीवी बनियाईन
पंडित की बीवी पंडिताईन
या कहें कि
पति पर पत्नी का अधिकार
या फिर पत्नी को विरासत मे प्राप्त
ऎसी कुर्सी
जो मिल गई ब्याहता बनते ही
कुछ भी कहेंगें...
लेकिन 
खुद को
डॉक्टर की बीवी डॉक्टरनी
मास्टर की बीवी मास्टरनी
कहलाने वाली पत्नियाँ
उतारी जा सकती हैं
कभी भी
इस पद से
इस अस्थायी कुर्सी से
अनपढ़, गँवार, ज़ाहिल कह कर
अपमानित होकर
क्योंकि
खुद को घर, पति और बच्चों के बीच
होम करती स्त्री 
नहीं सोच पाती इतनी गहराई से
कि उसे भी चुनने होंगे
रास्ते अपने
मंजिले अपनी
स्वाभिमान के साथ
क्योंकि आज के परिवेक्ष में
गाड़ी के दोनों पहिये
हर तरह से
समान होने आवश्यक हैं।

शानू

Wednesday, March 5, 2014

ये ज़िंदगी किताब है...





ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन  ख्वाब है
पढ़ी गई, कि छोड़ दी,
आधी पढी ऒ मोड़ दी
जो जान के अंजान है
कहे कि दिल  नादान है
पल-पल यही खिताब है
गलतियाँ बेहिसाब है

खाई कसम ओ तोड़ दी
रंगत भी सब निचोड़ दी
ये छाँव है वो धूप है
ये प्रीत है वो भूख है
चेहरे पे इक नकाब है
फिर भी ये लाजवाब है
ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन ख्वाब है...


पा ली कभी खो दी
हँस दी कभी रो ली
छीन ली या बाँट दी
पल में उम्र गुजार दी
प्यार है एतबार है
या बनावटी श्रंगार है
मोतियों सी आब है
ये कुदरती नवाब है


लिपट गई सिमट गई
खुल गई बिखर गई
इश्क है जुनून है
पानी है या खून है
बंदिशो की अजाब है
फिर भी आफ़ताब है
ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन ख्वाब है...

शानू

Sunday, March 2, 2014

एक हॉस्य कविता



जब से सिमट गया है
सारा घर मोबाइल में
इमोशन खो गये हैं 
व्वाट्स अप की स्माइल में
बच्चे सामने आने से 
कतराते हैं
अब बस मोबाइल पर ही
बतियाते हैं
पहले यदा-कदा
प्यार भरे दो बोल 
कह दिया करते थे
डाल गले में बाहें
झूल लिया करते थे
अब तो मोबाइल पर ही
मुस्कुराते हैं
टाटा बाय-बाय
हाथ हिलाते है
बस लव यू मम्मा
कह पाते हैं....
शानू

Friday, January 10, 2014

छिपकली




कितनी बार कहा है
दीवार से चिपकी 
मत सुना कर लोगों की बातें
मगर वो न मानी थी, 
आखिरकार गुस्से मे आ 
हाथ की पँखी से
काट डाली थी पूँछ आम्गुरी लोहारिन ने
कुछ देर बिलबिलाती रही
और शाँत हो गई, 
मगर वो जिद्दी 
पूँछ कटी होकर भी 
सुनती रही लोगों की बातें, 
कितनी बार कहा है धीरे बोला करो, 
वो अबतक 
चिपकी है दीवार से 
मैने कहा था न 
दीवारों के भी कान होते हैं...

शानू

Wednesday, January 8, 2014

नही पड़ता फर्क





नही पड़ता फर्क 
तेरे कुछ न कहने से
तेरे दूर होने या 
पास होकर भी न होने से
किन्तु 
होती है बेचैनी
भर जाती हूँ एक अज़ीब सी चुप्पी से
या चहकती हूँ बेवजह मै
कैसी कशमकश है 
मुझे खुद से जुदा किये है
फिर भी नही कह पाती
ये खुदकुशी है...

शानू

अंतिम सत्य