हे अमलतास
तपती धरती करे पुकार,
गर्म लू के थपेड़ों से,
मानव मन भी रहा काँप
ऐसे में निर्विकार खड़े तुम
हे अमलतास।
मनमोहक ये पुष्प-गुच्छ तुम्हारे,
दे रहे संदेश जग में,
जब तपता स्वर्ण अंगारों में,
और निखरता रंग में,
सोने सी चमक बिखेर रहे तुम
हे अमलतास।
गंध-हीन पुष्प पाकर भी,
रहते सदा मुसकाते,
एक समूह में देखो कैसे,
गजरे से सज जाते,
रहते सदा खिले-खिले तुम
हे अमलतास
हुए श्रम से बेहाल पथिक,
छाँव तुम्हारी पाएँ,
पंछी भी तनिक सुस्ताने,
शरण तुम्हारी आयें,
स्वयं कष्ट सहकर राहत देते
हे अमलतास।
बचपन से हम संग-संग खेले,
जवाँ हुए है साथ-साथ,
झर-झर झरते पीले पत्तों सा,
छोड़ न देना मेरा हाथ,
हर स्वर्णिम क्षण के साथी तुम
हे अमलतास।
सुनीता(शानू)