चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Friday, June 29, 2007

हे अमलतास

हे अमलतास

तपती धरती करे पुकार,

गर्म लू के थपेड़ों से,

मानव मन भी रहा काँप

ऐसे में निर्विकार खड़े तुम

हे अमलतास।


मनमोहक ये पुष्प-गुच्छ तुम्हारे,

दे रहे संदेश जग में,

जब तपता स्वर्ण अंगारों में,

और निखरता रंग में,

सोने सी चमक बिखेर रहे तुम

हे अमलतास।

गंध-हीन पुष्प पाकर भी,

रहते सदा मुसकाते,

एक समूह में देखो कैसे,

गजरे से सज जाते,

रहते सदा खिले-खिले तुम

हे अमलतास

हुए श्रम से बेहाल पथिक,

छाँव तुम्हारी पाएँ,

पंछी भी तनिक सुस्ताने,

शरण तुम्हारी आयें,

स्वयं कष्ट सहकर राहत देते

हे अमलतास।

बचपन से हम संग-संग खेले,

जवाँ हुए है साथ-साथ,

झर-झर झरते पीले पत्तों सा,

छोड़ न देना मेरा हाथ,

हर स्वर्णिम क्षण के साथी तुम

हे अमलतास।

सुनीता(शानू)

Thursday, June 28, 2007

"ए दोस्त"

"ए दोस्त"

तुम जानते हो,

तुम्हारी हर बात,

मेरी जिन्दगी के,

मायने बदल देती है,

तुम्हारी हर बात,

प्रेरणा होती है,

उस पल,

जब मै अकेले में,

सिसक रही होती हूँ...

जिन्दगी से हार कर,

मै जानती हूँ,

उन विषम परिस्थितीयों में,

तुम कुछ भी नही कर सकते,

मेरे लिये,

और यह भी कि,

सहना ही पड़ेगा मुझको यह सब,

अकेले,

मगर फ़िर भी,

मुझे चाहत रहती है,

सदैव,

तुम्हारी उपस्थिती की,

तुम्हारी मौजूदगी की,

तुम्हारे होने का यह

"अहसास"

मुझमे चाहत भर देता है,

जीने की

और रास्ता बनाता है,

उन कठिन परिस्थितियों से,

उभर आने का,

सभंल जाने का...

Tuesday, June 26, 2007

दर्द का रिश्ता

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तेरा मेरा रिश्ता,
लगता है जैसे...
है दर्द का रिश्ता,
हर खुशी में शामिल होते है,
दोस्त सभी
परन्तु
तू नहीं होता,
एक कोने में बैठा,
निर्विकार
सौम्य
मुझे अपलक निहारता
और
बॉट जोहता
कि
मै पुकारूँ नाम तेरा...
मगर
मै भूल जाती हूँ,
उस एक पल की खुशी में,
तेरे सभी उपकार,
जो तूने मुझ-पर किये थे,
और तू भी चुप बैठा
सब देखता है,
आखिर कब तक
रखेगा अपने प्रिय से दूरी,
"अवहेलना"
किसे बर्दाश्त होती है,
फ़िर एक दिन,
अचानक
आकर्षित करता है,
अहसास दिलाता है,
मुझे
अपनी मौजू़दगी का,
एक हल्की सी
ठोकर खाकर
मै
पुकारती हूँ जब नाम तेरा,
हे भगवान!
और तू मुस्कुराता है,
है ना तेरा मेरा रिश्ता...
लगता है जैसे,
दर्द का रिश्ता...

सुनीता(शानू)

Saturday, June 9, 2007

पतंग की डोर


एक डोर से बँधी मैं,
पतंग बन गई
दूर-बहुत-दूर...
आकाश की ऊँचाइयों को नापने,
सपनों की दुनिया में,
उड़ती रही...
इस ओर कभी उस ओर
कभी डगमगाई कभी सम्भली
फ़िर उड़ी
एक नई आशा के साथ,
इस बार पार कर ही लूँगी
वृहत् आकाश
पा ही लूँगी मेरा सपना
मगर तभी,
झटका सा लगा...
एक अन्जानी आशंका,
मुड़कर देखा
वो डोर जिससे बंधी थी
वो डोर जो मजबूत थी
बिलकुल मेरे
उसूलों
मेरे दायरों की तरह
फ़िर सोचा
तोड़ दूँ इस डोर को
आख़िर कब तक
बंधी रहूँगी
इन बेड़ियों में
जो उड़ने से रोकती हैं
कि सहसा
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना संतुलन खो बैठी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर, कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
सभी क्रूर हाथों ने
कराह आई
काश! डोर से बंधी होती
किसी सम्मानित हाथों में
पूरा न सही
होता मेरा भी अपना आकाश
और मैं लौट गई
चरखी में लिपट गई
डोर के साथ

सुनीता चोटिया (शानू)

Saturday, June 2, 2007

कन्यादान





















इतिहास ने फ़िर धकेलकर,

कटघरे में ला खड़ा किया...

अनुत्तरित प्रश्नो को लेकर,

आक्षेप समाज पर किया॥

कन्यादान एक महादान है,

बस कथन यही एक सुना...

धन पराया कह-कह कर,

नारी अस्तित्व का दमन सुना॥

गाय, भैस, बकरी है कोई,

या वस्तु जो दान किया...

अपमानित हर बार हुई,

हर जन्म में कन्यादान किया॥

क्या आशय है इस दान का,

प्रत्यक्ष कोई तो कर जाये,

जगनिर्मात्री ही क्यूँकर,

वस्तु दान की कहलाये॥

जीवन-भर की जमा-पूँजी को,

क्यों पराया आज किया...

लाड़-प्यार से पाला जिसको,

दान-पात्र में डाल दिया॥

बरसों बीत गये इस उलझन में,

न कोई सुलझा पाये..

नारी है सहनिर्मात्री समाज की,

क्यूँ ये समझ ना आये॥

हर पीडा़ सह-कर जिसने ,

नव-जीवन निर्माण किया,

आज उसी को दान कर रहे,

जिसने जीवन दान दिया॥

सुनीता(शानू)


अंतिम सत्य