चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Friday, September 5, 2008

और मै रूठ पाऊँ...



चिट्ठाजगत
-हर रोज-
-दिन निकलने के साथ-
-मेरे पास होते हैं कई सवाल-
-तुम्हारे लिये-
-खोज-खोज कर-
-सहेज लेती हूँ उन्हे-
-कि तुम्हारे कुछ कहने से पहले ही-
-पूछूंगी तुमसे-
-उन सवालों के जवाब-
-परंतु मेरे कुछ कहने से पहले ही-
-तुम समझ जाते हो-
-मेरी हर बात-
-और बिन कहे ही-
-रख देते हो जवाबों का पुलिंदा-
-मेरे हाथों में और-
-तुम्हारी मीठी-मीठी-
-बातों का जादू-
-समेट देता है मुझे-
-मेरे शब्दो के साथ-
-चिपक जाती है जीभ तालू में-
-और सोचती हूँ-
-आखिर झगडा़ किस बात पर हो-
-कि तुम मुझे मनाओ-
-और मै रूठ पाऊँ...
सुनीता शानू

Tuesday, September 2, 2008

रिश्तों की परिभाषा




रिश्तों की परिभाषा


चँचल मृग-नयनों में बसे, इन अश्को की भाषा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


कभी-कभी अनजानी सी एक डगर,
पर लगती है कुछ जानी-पहचानी सी,
एक पल में लगता है कोई अपना सा
और हो जाती है हर बात पुरानी सी।


तुम तन से लाख छुपा लो पर, मन की अभिलाषा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


फ़ासले लाख बढा़यें पर बढ़ नही पाता,
जुदाई में भी इश्क कभी मर नही जाता,
महबूब से जन्नत सी लगती है जिंदगी,
पर तनहाई में एक पल रहा नही जाता।


मुझ बिन उमड़-घुमड़ आई आँखों से,वो जिज्ञासा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥



क्यों पल भर में दूरी बंध जाती है,
एक अनजाने अदृश्य बंधन सी,
फ़िर कैसे बिन मांगे मथ जाती है,
अनचाहे रिश्तों के समुंद्र मंथन सी।


बिन बाँधें बँध जाने वाले इन, रिश्तो की आशा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥


खुद को पाने की कशमकश में,
खो देता है जो अक्सर खुदी को,
ढूँढता फ़िरता है जिस मृग को,
वो बस मिलता है कस्तूरी को,


स्वप्न लोक में मृग-मरीचिका की, घोर निराशा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥

जिन रिश्तों की जड़े होती है हठीली,
टू्टे गमले मॆं भी डाली रहती है गर्विली,
कच्चे धागे से बँधा विश्वास भी टूटता नही,
पानी में भीग गाँठे होती है ज्यादा गठीली,

प्रेम और विश्वास के अभिलाष, प्रेम की अभिप्सा समझा दो।
किस-विधि नापोगे प्यार मेरा, रिश्तों की परिभाषा समझा दो॥

सुनीता शानू

अंतिम सत्य