चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Thursday, March 27, 2008

पलकें बंद हो गई...


आँखों ने आँखों से कह दिया सब कुछ

मगर जुबाँ खामोश रही...

जब दिल ने दिल की सुनी आवाज़

धड़कन खामोश रही...

आँखो के रास्ते दिल में उतरने वाले

ऎ मुसाफ़िर

अब बाहर जा नही सकते

तुम्हारे प्यार की खुशबू से तृप्त

उठती गिरती साँसे देख कर

अब पलके बंद हो गई...

सुनीता शानू

Monday, March 24, 2008

एक कविता....

दोस्तों कल एक कविता सुनाने का मौका मिला ...आपके सामने प्रस्तुत है...


आज़ादी की होली

पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानों ने होली


आज सजा है सर पे उनके बलिदानो का सेहरा
चाँद सितारों से मिलता है नादानों का चेहरा
आँख में आँसू आ जाते है देख के सूरत भोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


महक उठी है आजादी हर धड़कन हर साँस में
छा गई है मस्ती एसी आज़ादी की आस में
नया सवेरा लाने निकली परवानो की टोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


मर कर भी जिन्दा रहते है देश पे मिटने वाले
सर पर बाँध कफ़न आये है आज़ादी के मतवाले
आज लगा दी सबने अपने अरमानो की बोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


आज चले है माँ के प्यारे देश की आन बचाने
जान हथेली पर ले आये आजादी के परवाने
हँसते-हसँते चढ़े फ़ाँसी पर हिम्मत भी न डोली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


सुखदेव,भगत सिंह,राजगुरू ने जो दिया बलिदान
ऋणी रहेगा सदा तुम्हारा सारा हिन्दुस्तान
नमन उन्हे है जिन वीरो ने खेली खून की होली
पहन वसन्ती चोला निकली मस्तानो की टोली
आजादी की खातिर खेली दिवानो ने होली


सुनीता शानू

Saturday, March 22, 2008

फ़ागुन आया झूम के...

दोस्तों होली का त्यौहार आप सबके जीवन में खुशियाँ लाये यही मनोकामना है...

भंग की तरंग

ढोलक और मॄदंग

होली के रंग

नाचे संग-संग .....




फ़ागुन के दोहे


डाल-डाल टेसू खिले,आया है मधुमास,
मै हूँ बैठी राह में,पिया मिलन की आस।
हो रे पिया मिलन की आस



फ़ागुन आया झूम के ऋतु वसन्त के साथ
तन-मन हर्षित हों रहे,मोदक दोनो हाथ
हो रे मोदक दोनो हाथ



मधुकर लेके आ गया, होठों से मकरंद
गाल गुलाबी हो गये, हो गई पलकें बंद।
हो रे हो गई पलकें बंद



पिघले सोने सा हुआ,दोपहरी का रंग
और सुहागे सा बना,नूतन प्रणय प्रसंग
हो रे नूतन प्रणय प्रसंग



अंग-अंग में उठ रही मीठी-मीठी आस
टूटेगा अब आज तो तन-मन का उपवास
हो रे तन-मन का उपवास



इन्द्र धनुष के रंग में रंगी पिया मै आज
संग तुम्हारे नाचती , हो बेसुध बे साज
हो रे हो बेसुध बे साज



तितली जैसी मैं उड़ू चढ़ा फ़ाग का रंग
गत आगत विस्मृत हुई,चढी नेह की भंग
हो रे चढ़ी नेह की भंग



रंग अबीर गुलाल से,धरती भई सतरंग
भीगी चुनरी रंग में,हो गई अंगिया तंग
हो रे हो गई अंगिया तंग



गली-गली रंगत भरी,कली-कली सुकुमार
छली-छली सी रह गई,भली भली सी नार
हो रे भली-भली सी नार



सुनीता शानू




Friday, March 7, 2008

मै और तुम

एक औरत और नदी में क्या अन्तर है?
क्या उसका अपना अस्तित्व बाकी रहता है समुन्दर रूपी पुरूष से मिलकर ?

क्या विवाह के बाद भी वह, वह रह पाती है जो पहले थी?
क्यों उसे ही बदलना पड़ता है, यहाँ तक की जन्म से जुड़ा नाम तक बदल जाता है...





-मै और तुम-

-बँध गये हैं एक अदृश्य बंधन में...

-कितने शान्त और गम्भीर हो तुम-

-समन्दर की तरह...

-और मै शीतल,चँचल,-

-बहती नदी सी-

- बहे जा रही हूँ निरन्तर...

-और तुम मेरी प्रतिक्षा में खड़े हो-

-अपनी विशाल बाहें फ़ैलाये-

-मेरे आते ही तुम्हारी भावनाये-

- हिलोरे लेने लगती है-

-लहरों की तरह-

-और मुझे सम्पूर्ण पाकर...

-हो जाते हो शान्त तुम भी-

-मै जानती हूँ...

-मै अब तक मै ही हूँ-

-किन्तु...

-जिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-

-तुम बन जाऊँगी-

सुनीता शानू



अंतिम सत्य