क्या उसका अपना अस्तित्व बाकी रहता है समुन्दर रूपी पुरूष से मिलकर ?
क्या विवाह के बाद भी वह, वह रह पाती है जो पहले थी?
क्यों उसे ही बदलना पड़ता है, यहाँ तक की जन्म से जुड़ा नाम तक बदल जाता है...
-मै और तुम-
-बँध गये हैं एक अदृश्य बंधन में...
-कितने शान्त और गम्भीर हो तुम-
-समन्दर की तरह...
-और मै शीतल,चँचल,-
-बहती नदी सी-
- बहे जा रही हूँ निरन्तर...
-और तुम मेरी प्रतिक्षा में खड़े हो-
-अपनी विशाल बाहें फ़ैलाये-
-मेरे आते ही तुम्हारी भावनाये-
- हिलोरे लेने लगती है-
-लहरों की तरह-
-और मुझे सम्पूर्ण पाकर...
-हो जाते हो शान्त तुम भी-
-मै जानती हूँ...
-मै अब तक मै ही हूँ-
-किन्तु...
-जिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-
-तुम बन जाऊँगी-
सुनीता शानू
जिस दिन मुलाकात होगी मैं तुम बन ...........बहुत सुंदर कल्पना है धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत बढिया .लगता है हर रोज आपके ब्लाक मे आना पडेगा ..........
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है।
ReplyDelete-मै जानती हूँ...
-मै अब तक मै ही हूँ-
-किन्तु...
-जिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-
-तुम बन जाऊँगी-
बहुत खुब,
ReplyDeleteजिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-
तुम बन जाऊँगी-
एक सम्पुर्ण समर्पण,वाह भारतिया नारी तुम सच मे पुजने योग्य हो,सुनिता जी मुझे कविता का इतना ग्यान नही, फ़िर भी आप की कविता अच्छी नही, बहुत ही अच्छी लगी,धन्यवाद
जिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-
ReplyDelete-तुम बन जाऊँगी-
bahut hi sundar bhav,simply awesome
सुंदर रचना!
ReplyDeleteचलिए आप दिखीं तो सही यहां!
बने रहिए!!
नदी गिरती समंदर में यही दस्तूर है अब तक.
ReplyDeleteसमंदर खुद चला आया नदी क्यों दूर है अब तक.
समुद्र भी नदियों के मेल से बना।।।।।।।
ReplyDeleteबहुत उम्दा और सरल भाव हैं इस रचना के..एकदम बहती हुई..बधाई.
ReplyDeletesch kahta hoon mam kvita psnd aayi...aur aapka blog bhi idhar aaya kroon to aapko etraj to nhi....
ReplyDeleteसुन्दर, गहरा भाव लिये है।
ReplyDeleteमेरे आते ही तुम्हारी भावनाये
ReplyDeleteहिलोरे लेने लगती है
लहरों की तरह
और मुझे सम्पूर्ण पाकर...
हो जाते हो शान्त तुम भी
behad khoobsurat rachna hai.
bahut badhaayee...
p k kush 'tanha'
आप की ये रचना पढ़ कर शब्दहीन सा हो गया बस एक शब्द बचा है कहने को -- "वाह". --- आकाश (अमेरिका से)
ReplyDeleteसुनीता जी,
ReplyDeleteकथ्य में एक तो रिपीटीशन है, दूजा कविता की शुरूआत में ही इसका अभीष्ट पता चल जाता है। कविता में कुछ चमत्कारिक तत्व भी हों- ऐसा काव्य-मर्मज्ञों ने कहा है।
सुन्दर कविता है ।
ReplyDeleteनदी और समुन्दर के माध्यम से डा. कुँवर बेचैन जी का एक बहुत खूबसूरत गीत याद आ गया :
नदी बोली समुन्दर से मैं तेरे पास आई हूँ
मुझे भी गा मेरे शायर मैं तेरी ही रुबाई हूँ ।
आतुर सागर रहता है नदिया से संगम को
ReplyDeleteकुछ कम कर पाता है अपने खारेपन को....
तटों की मर्यादा में जब तक पानी बहता है,
नाम नदी का उसको मिलता रहता है ।
उफान नदी में जब जब पानी का आता है,
दूर दूर तक बाढ़ का प्रकोप मच जाता है ।
आप की कविता की प्रतिक्रिया में अभी अभी लिखी पंक्तियां हैं..
कवि कुलवंत सिंह
मार्मिक भावनाओं की खूबसूरत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत भाव....कविता पढ़कर बस एक ही बात मन में आ रही है.....
ReplyDelete"प्रेम गली अति साँकरी, जामे दो न समाए !"
बहुत सुंदर प्रश्न है- "एक औरत और नदी में क्या अन्तर है ?"
ReplyDeleteऐसा बहुत कम होता है जब कोई प्रश्न प्यारा और सुंदर लगता है ! वरना प्रश्न तो तनाव, चिंता (प्रायः दुश्चिन्ता) और आशंकाएं ही लाते हैं. और तिस पर उत्तर देने की जवाबदारी अलग थोपते हैं. ऐसे में ये प्रश्न- "एक औरत और नदी में क्या अन्तर है ?"
ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर खोजने की कोई मेहनत करने की ज़रूरत नहीं-! प्रश्न आते ही अपने रोम रोम से उत्तर की सारी संभावनाओं के द्वार खोलता हुआ आता है. जहाँ औरत नदी और नदी औरत में निरंतर परिवर्तित होती जा रही है- हजारों वर्षों से.
और अब तो औरत ही नदी है, और नदी ही औरत भी. दोनों पूरक नहीं बल्कि एकरूप हैं. सर्वांगसम हैं.
एक और बहुत सुंदर प्रश्न- "क्या समंदर रूपी पुरूष से मिलकर उसका अपना अस्तित्व बाकी रहता है ?"
अपने अस्तित्व को तलाशता, अपने होने की परिभाषा खोजता और विलीन होने की आशंकाओं में अपनी तथता का रूपंकर सृजित करता प्रश्न-!
नदी ही तो समंदर बनाती है, लेकिन हजारों समंदर मिल कर एक छोटी सी भी नदी नहीं बना सकते. अस्तित्व की चिंता तो समंदर को होना चाहिए न कि नदी को. नदी न होगी तो समंदर भी नहीं होगा लेकिन समंदर नहीं होगा तो भी नदी रहेगी और वो अपनी ज़रूरत का समंदर सृजित भी कर लेगी.
समंदर खारा है इसीलिए उसमें प्रवाह नहीं है. नदी का प्रवाह ही उसकी जीवंतता है. इसीलिए वह जीवन दायिनी है.
पर प्रश्नों का सिलसिला अजस्र है-!
और प्रश्न- "क्या विवाह के बाद भी वह, वह रह पाती है जो पहले थी ?"
और भी- "क्यों उसे ही बदलना पड़ता है ?"
परिवर्तन उसकी जीवन शक्ति का, उसकी जिजीविषा का मूल है. वह बदल सकती है इसीलिए वह जीवन की समर्थ प्रतीक है.
और फिर सार्थक कविता - "मैं और तुम"
नदी और समंदर का संगम दोनों के वैयक्तिक अस्तित्व को मिटा कर उन्हें "हम" बना देता है. यही जीवन की सौद्देशिकता है. यह स्थिति बहुत सौभाग्य से मिलती है जब जीवन का उद्देश्य साकार हो उठता है.
सृजन वस्तुतः हमारे अवचेतन मन की अभिव्यक्ति होती है. आपके लेखन में आपके अवचेतन में पल्लवित हो रही गहन दार्शनिकता प्रतिबिम्बित हो रही है है जो बहुत शुभ संकेत है.
अपनी ऊर्जा बनाए रखें और जीवन को सुपरिभाषित करने में कामयाब हों यही कामना है.
आनंद कृष्ण जबलपुर
मोबा.- 09425800818
बेहद सुंदर। एक नारी ही इतनी सुंदर कल्पना कर सकती है। आपको नारी होने की बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर मार्मिक रचना है।
ReplyDeleteबहुत उम्दा और बेहतरीन अभिव्यक्ति ,धन्यवाद!
ReplyDeleteजिस दिन तुमसे मिल जाऊँगी-
ReplyDelete-तुम बन जाऊँगी-
lagta hai puri kavita ka sar yahi hai.....aor mashaallah kya chitr aapne lagaya hai....is kavita ki khoobsurti badha deta hai.
अति सुन्दर ...
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