धरती पर फ़ैली है,सरसों की धूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी ॥
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी ॥
फ़ूट पड़े मिट्टी से सपनों के रंग
नाच उठी सरसों भी गेहूं के संग।
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे अंग।
धरती के बेटों की आन-बान भूप-सी
धरती बन आई है,नवरंगी रूपसी॥
बाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
आँखों में कौंध गया, बिजली-सा नेह।
सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।
धरती-सी गृहणी की,कामना अनूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी॥
धरती ने दे डाले अनगिन उपहार,
फ़िर भी मन रीता है,पीर है अपार।
सूने हैं खेत और, खाली खलिहान-
प्रियतम के साथ बिना जग है निस्सार।
धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥
सुनीता शानू
जितने सुहावन शब्द
ReplyDeleteउतना ही मनभावन चित्र
संजय भाई यह हमारे राजस्थान का चित्र है...:)
ReplyDeleteअद्भुत भाव,सुनिता जी बेसाखी का एक तोहफ़ा, धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत उम्दा. शब्दों का कमाल. भाव बेमिसाल.
ReplyDeleteतस्वीर, फिर रंग, फिर शब्द और फिर कविता... वाह ! बहुत अच्छा !
ReplyDeleteसुनीता जी मैं आज ही आपसे कह रहा था कि राकेश खंडेलवाल जी मेरे पसंदीदा कवि हैं और आपने उन्हीं की शैली में एक गीत लिख कर मुझे चौंका ही दिया । अद्भुत प्रयोग किये हैं आपने इसमें विशेषकर काफियाबंदी करते समय तो बात को खूब निभाया है हां एक जगह पर आप टाइपिंग की गलती कर गईं हैं उसको ठीक कर लें
ReplyDeleteबाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
आँखों में कौंध गया, बिजली-सा ने।
सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।
इसमें बिजली सा नेह पूरा टाइप नहीं हो पाया है केवल ने ही आकर रहा है । बाकी गीत के बारे में क्या कहूं अच्छा प्रयोग है । देर से पढ़ने के कारण मुझसे पहले काफी लोग टिप्पणी कर गए हैं । आशा है इतने सुंदर गीत और भी मिलेंगें पढ़ने को ।
respected sunitaji ,
ReplyDeletebehad sundar chitra kheecha hai
aapne !!
बेहद सुन्दर तस्वीर बनायी है आपने अपने शब्दो के माध्यम से... सच मे अपना राजस्थान याद आ गया... बधाई स्वीकार करें..
ReplyDeleteसुनीता जी.. आप तो बधाई की पात्र हैं...इतना सुंदर गीत..कदम दर कदम..तेजी से बढ़ते हुए..मेरी हार्दिक शुभकामनाएं...
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता है आपकी कविता ने मन मोह लिया है
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा गीत है. इसे तो पॉडकास्ट भी करना चाहिये. आनन्द आ गया. अब सुनने का इन्तजार है. बधाई.
ReplyDeleteखूबसूरत ,निर्मल ओर धरती को शुक्रिया अदा करता गीत ........
ReplyDeleteप्रकृति में मानवीकरण दिल को मोह लेता है और आपकी कविता ने दिल मोह लिया है.
ReplyDeleteवाह सुनीता जी ..बहुत खूबसूरत चित्रण. झूमते गाते खेत नज़रों के सामने तैर गए !
ReplyDeleteनिश्चय ही आ्पकी रचनायें उत्कृष्ट हुआ करती है,
ReplyDeleteइनको इस नाचीज़ की प्रसंशा की आवश्यकता तक
नहीं है ।
फिर भी इतने अभिभूत क्षणों में भी, मैं अपनी
असहमति दर्ज़ करवाने से नहीं चूकूँगा ...
आपभी सहमत होंगी कि इतनी कोमल भाव एवं
मन से लिखी रचनायें, अति अंतरंगता को कितना
उद्वेलित करती हैं ।
इनको चाय की प्याली के साथ एकीकृत न करें,
इससे इन भावाव्यक्ति की अस्मिता खंडित होती है ।
नमस्कार !
बड़ा सुंदर गीत है.. बधाई
ReplyDeleteचित्र वाकई बहुत बढ़िया है
very nice..!!
ReplyDeleteमनमोहक गीत !
ReplyDeletekavita bhahot sundar lagi
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteshakher kumawta
kavyawani.blogspot.com/
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteधरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
ReplyDeleteधरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥
vaah! kya shaandaar kavita hai aapki,shaanu ji.
baar baar padhne ka man karta hai.
phir bhi dil nahi bharta hai.
yah to sachmuch aapki halchal ki shaan hai,ji.