अब ये रस्में-मोह्ब्ब्त भुला दीजिये
उनके ख्वाबों को दिल से हटा दीजिये
अश्क आँखों में देकर ये कहते हैं वो
चाहतों को भी अपनी भुला दीजिये
कल ही महफिल में रुसवा किया था हमें
अब वो कहते है हमको वफ़ा दीजिये
अपने ही जिस्म में अब न लगता है मन
उनके दिल को कोई घर नया दीजिये
और कब तक कोई राह देखे भला
जिस्म को खाक में अब मिला दीजिये
सुनीता शानू
कल ही महफिल में रुसवा किया था हमें
ReplyDeleteअब वो कहते है हमको वफ़ा दिजिये
वाह! बहुत खूब
अपने ही जिस्म में अब न लगता है मन
ReplyDeleteउनके दिल को कोई घर नया दिजिये
बहुत खूब। शानू जी दिल को काफी सुकून दिया आपकी गजल ने। लिखते रहिए।
अपने ही जिस्म में अब न लगता है मन
ReplyDeleteउनके दिल को कोई घर नया दिजिये
waah....! bahut khub...!
बहुत ही सुन्दर गज़ल
ReplyDeleteवर्तनी की अशुद्धियां सुधारियो सुनीता जी । बाकी सब कुछ ठीक है ।
ReplyDeleteachchhi gjl hai achchha likha aapne
ReplyDeleteअच्छी ग़ज़ल है सुनीता जी । और आपने जिस तरह से रंगों से सजा दी है उसको तो और भी अच्छी बन पड़ी है
ReplyDeleteबहुत खूब भाव हैं और चित्र भी उतना ही उम्दा.बधाई.
ReplyDeleteसुनीताजी…
ReplyDeleteशब्द आपके हैं लेकिन ग़ज़ल का मज़ा यही है कि
वह पढ्ने वाले को अपनी दास्तान लगे। जनाब बशीर बद्र साहब कहते हैं कि क़लाम पढते ही वह अवाम की अमानत हो जाता है
बहुत उम्दा ग़ज़ल. हर शेर बाकमाल. बहुत अच्छा लगा. बधाई.
ReplyDeleteक्या बात है, बढ़िया !!
ReplyDeletedil ko chu dene wali gazal hai ,bahut sundar. me bhi ek blog likhne ki kosis kar rahi hu please jarur dekhe
ReplyDeletebahut hi sundar pangtiya hai ,man ko chune wali.me bhi ek blog likhne ki kosis kar rahi hu please jarur dekhe
ReplyDeleteमुबारक हो सुनीता जी.. आखिर आपने गज़ल लिखना सीख ही लिया..
ReplyDelete२१२ २१२ २१२ २१२ बहर में ..
एक अच्छी शुरुआत.. बधाई...
बहुत ही खुब सुरत...
ReplyDeleteकल ही महफिल में रुसवा किया था हमें
अब वो कहते है हमको वफ़ा दिजिये
धन्यवाद एक सुन्दर ओर अच्छी गजल के लिये
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