दो चार ठौ कविता बन पड़ी सो है सो यहीं पर ठेले जा रहे हैं... :)
उसने कहा तुम्हारी हँसी में
मुझे दर्द सा क्यों लगता है?
क्या बेवजह कोई
इतना हँसता है?
मुझे भी लगा किस बात पर
हँस रही हूँ मैं!
कि राज़ दिल के सबको
कह रही हूँ मै--
किसी की याद हद से ज्यादा आने लगे
कोई अंदर से गहरा सताने लगे
तो ऎ दिल
कोशिश कर
खुद को समझाने की
कोशिश कर
खुद को हँसाने की...
शानू( बस यूँही) एक उदास शाम... मै... और..मेरी चाय :)
(२)
बस यही परिणति है
किसी के मासूम एहसासों की
कि सिसकी बन के
शीशे सी पिघलती रही याद सीनें में
और कहीं दूर उसे
खबर तक न हो पाई...
(३)
जमीं पर ही चलते देखा है अभी तक
मेरे पैरो के पँखों को तुमने देखा नही है
ऎ आसमाँ इतना गुरुर भी अच्छा नही
मेरे हौसलों की उड़ान अभी बाकी है...
शानू
अच्छा लिखा है आपने शुभकामनायें ...कभी समय मिले आपको तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहंसी में दर्द सा क्यों है ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बहुत सुंदर सुनीता जी .. बधाई लीजिये...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
सुनीता जी ...मन पखेरू उड़ चला फिर की प्रति मेरे एक मित्र ने दी...आपकी कवितायेँ अच्छी लगीं. आपकी सफलता की कामना करता हूँ...
ReplyDeleteशानदार रचना
ReplyDeleteGyan Darpan