चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Saturday, September 29, 2007

तो फ़िर प्यार कहाँ है?


बहुत खुश थी वह
कि सब कितना प्यार करते है
कितना ख्याल रखते है

उसका
बाबूजी का चश्मा
जो अक्सर रख कर भूल जाते थे
या फ़िर उनकी कलम
सभी का ख्याल रखती थी

वो
पति को सम्भालना
सर दबाना,पैर दबाना
चाहे सारा दिन की कशमकश से थक गई हो

मगर
कभी मन भारी नही लगता था
बच्चो का प्यार तो भरपूर था
जैसे की भरा समुन्दर
जेब खर्ची बच्चे माँ से पाते थे
हर गलती पर
माँ का आँचल बचाता था

उन्हे
वह पेड़ की छाल ही नजर आती थी
जैसे की पेड़ कटने से पहले
हर मुसीबत
छाल को ही सहनी पड़ती है
मगर आज बरसों बाद
यह भरम भी टूट गया

जब
एक लम्बी बिमारी ने

अपना जामा पहना दिया
और वह टूट कर बिखर गई
चारपाई पर
कुछ दिन लगा
कि सभी कितना प्यार करते है
मगर एक दिन

शीशे सा मन टूट गया
आज वो समझी
यह प्यार नही था
वह सबकी जरूरत थी
हाँ शायद
इन्सान की कीमत
उसके बस काम से है
और फ़िर
उसने जाना...
बेकार,बेरोजगार,बीमार,लाचार इन्सान
किसी काम का नही

तो फ़िर प्यार कहाँ है?

मगर लगता है
मन के किसी कौने में
प्यार अभी बाकी है
क्या घर के नौकर सी बदतर है
औरत की जिन्दगी
क्या उसे परेशान देख कर
घर की आँखें रोती नही
हाँ सबकुछ था पास
मगर विश्वास कहीं खो सा गया था
कुछ न कर पाने पर
जब निराशा हावी हो जाती है
इन्सान की समझ पर
पर्दा गिर जाता है
और
उसके लिये परेशान आँखे
शायद
उसे अहसास दिलाती रहती है
कि आज
जब कोई तुझे पुकारता नही
तो लगता है प्यार नही
और वह पूछती है खुद से

तो फ़िर प्यार कहाँ है



12 comments:

  1. bahut sundar blog. kavita bhi bahut marmik. pahli bar padha aur achchha laga.badhai.niyamit likhen...aapki aur kavitaen padhoonga.

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  2. मार्मिक एवं यथार्थ चित्रण। सच्चा प्यार तो केवल आत्मा-परमात्मा का ही होता है।

    अच्छी बात आप केवल हास्य रस ही नहीं सारे नवरसों का सरस अनुभव कराती हैं।

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  3. अरे, इतनी गहरी सोच में कौन खो गया?? किसकी व्यथा कथा है? शब्दों में भावों को अच्छा उकेरा है. इमानदार बयानी है.

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  4. सभी कुछ एक व्यक्ति के मस्तिष्क में होता है हो सकता है जिसे हम जरुरत समझें वह प्यार भी हो और यह कि कई बार सत्य प्रेम भी मात्र काम ही नजर आता है…
    वैसे कविता बहुत ही सुंदर है तर्क अपने हो सकते हैं।

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  5. काफी अच्छा लगा, लेकिन इस विश्लेषण में आपने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात को नजांदाज कर दिया है जिस कारण आप को लगता है कि वह प्यार नहीं बल्कि जरूरत थी.

    सच है कि उनको आपकी जरूरत थी. लेकिन आपका निष्कर्ष उससे एक कदम आगे जाता है एवं कहता है "सिर्फ जरूरत थी". यह गलत है. जरूरत थी को सिर्फ जरुरत थी न देखें. इस अंतर को एक उदाहरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है.

    आप परिवारजनों के लिये जो कुछ करती हैं वह एक विश्वस्त नौकर या नौकरानी भी कर सकते है. यदि वे बीमार पड जायें तो सभी लोग उस की सेवा को मिस करेंगे. लेकिन सवाल यह है कि क्या वे लोग उस नौकर/नौकरानी की सेवा को, एवं उस व्यक्ति को, ठीक उसी तरह से मिस करेंगे जिस तरह से वे आपको मिस करते हैं? कदापि नहीं. आपको मिस करने में ऐसे कई आयाम जुडे हैं जो नौकरों से नहीं जुडे है.

    मदद करने वाले नौकर के साथ रिश्ता एक-आयामी होता है, लेकिन सारे परिवार की मदद करने वाले एक व्यक्ति के साथ परिवारजनों का रिश्ता बहुआयामी होता है. बहुआयामी (कई तरह से) वे आपको मिस करते है. अत: आपका यह निषकर्ष गलत है कि वे "सिर्फ" आपकी सेवा को मिस करते है.

    वे आपकी सेवा को भी मिस करते है, आपकी उपस्थिति को भी मिस करते हैं, आपको भी मिस करते है. इस नजरिये से देख कर कविता के आखिरी भाग में कम से कम छ: पंक्तियां और जोड कर कविता को इससे अधिक अर्थपूर्ण बनायें -- शास्त्री जे सी फिलिप

    मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
    2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

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  6. हरे प्रकाश जी आप पहली बार आये है बहुत-बहुत धन्यवाद...हरिराम जी.समीर जी,दिव्याभ जी आप सभी का भी शुक्रिया...शास्त्री जी आपके कहे अनुसार मैने कविता में पूर्णता लाने की कोशिश की है...कृपया ध्यान दें

    सुनीता(शानू)

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  7. बहुत अच्छा, लेकिन एक बार और संशोधन की जरूरत है: परिवारजनों के प्यार को जरा और शक्ति के साथ उकेरें तो अच्छा होगा -- शास्त्री जे सी फिलिप


    हिन्दीजगत की उन्नति के लिये यह जरूरी है कि हम
    हिन्दीभाषी लेखक एक दूसरे के प्रतियोगी बनने के
    बदले एक दूसरे को प्रोत्साहित करने वाले पूरक बनें

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  8. मर्मस्पर्शी है।पर फिर भी माँ या औरत का रिश्ता सिर्फ काम से ही नही माना जा सकता है।
    बडे दिनों बाद लिखा।
    और सुनीता जी आपके ब्लॉग का नया रुप काफी अच्छा लगा।

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  9. एक नारी के अतंस की पीर का बहुत ही जीवंत चित्रण किया है। बहुत सुन्दर ।

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  10. कविता पर टिप्पणी मेल पर लिख चुका हूं। ब्लाग पर चार पक्तियां लिखना चाहूंगा
    प्यार की तुलना सागर से करते हैं इसीलिए तो-

    चाहे कितना भी जल भाप बन कर उड़ जाए,
    कितनी ही नदियां उसके गोद में समा जाए।
    दुख लहरों सा उठे फिर भीतर जाके छुप जाए,
    प्यार गहराई में बैठा हुआ मंद-मंद मुस्कुराए।

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  11. सुनीता जी,

    भावना प्रधान है आपकी कविता परन्तु जब हम भावुक होते हैं तो सिर्फ़ एक पक्ष ही देख पाते हैं..दुख में तो सिर्फ़ ईश्वर या फ़िर टूटन ही नजर आती है... आदमी मानसिक, शारिरिक रूप से भी पंगू हो जाता है..सब रिश्ते जरूरत से ही बनें हैं लेकिन ये जरूरी नहीं की जरूरत ही प्रधान हो...
    परन्तु यह रचना है और इसमें सभी पक्ष एक साथ नहीं रखे जा सकते इसलिये इसे एक सफ़ल भावनाप्रधान रचना कहने में मुझे कोई शंका नहीं

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य