चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Sunday, July 8, 2007

आधुनिक द्रोपदी (कृपया फ़िर पढ़े)

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी मुझे लगता है ये बहुत जरूरी है कि मै अपनी कविता के बारे में पहले आप सभी को कुछ निवेदन करूँ क्योंकि बहुत से मित्र-गण मेरी बात शायद ठीक से समझ नही पाये है...
...आज दुनिया में कितने लोग एसे है जो राम का नाम रख कर राम की भूमिका निभा रहे है...कितने लोग एसे है जो कृष्ण का नाम रख कर कृष्ण की भूमिका निभा रहे है...कृष्ण के जिस रूप से मै प्यार करती हूँ वो भगवान है मगर इस कविता में जिस रूप का वर्णन है वो सिर्फ़ एक नाम है... कृष्ण नही...यदि कोई कृष्ण भक्त यह कृष्ण का अपमान समझ रहा है तो मै उन सभी से विनती करती हूँ कृपया एसा ना समझे कृष्ण तो मेरे आराध्य है मै भला उनके लिये कुछ कैसे कह सकती हूँ ये उन लोगो के लिये कहा गया है जो सिर्फ़ नाम के कृष्ण है और जब द्रोपदी खुद ही निर्वस्त्र है तो ये नाम के कृष्ण भी क्या कर सकते है...आशा है आप अन्यथा न लेंगे...
मेरी यह कविता हास्य तो नही मगर व्यंग्य जरूर है आज के समाज पर, शायद अपने शब्दो से कुछ समझा ही पाऊँ…

एक गली के नुक्कड़ पर
खड़े हुए थे चार किशोर
मुरलीमनोहर,श्यामसुंदर,
माधव और नन्दकिशोर…

खड़े-खड़े होती थी उनमें
मस्ती भरी बातें,
रोज होती थी चौराहे पर
उनकी मुलाकाते…

तभी गुजरी वहाँ से
एक सुंदर बाला
चाल नशीली लगे कि जैसे
चलती-फ़िरती मधुशाला…

झाँक रहा था बदन
आधे कपड़ो में
जरा नही थी शर्म
उसके नयनो में…

देख प्रदर्शन अंगो का
हुए विवेक-शून्य किशोर
धर दबोचा एक पल में उसको
मचा भीड़ में कैसा शोर…

द्रोपदी ने गुहार लगाई
भूल गये तुम हे कन्हाई

कहा था तुमने हर जनम में,
तुम मेरी रक्षा करोगे
जो करेगा चीर-हरण द्रोपदी का
नाश उसका करोगे…

कृष्ण ने अट्टहास किया
द्रोपदी का उपहास किया…

है कहाँ वस्त्र अंगो पर
जो मै लाज बचाऊँ
तुम खुद ही वस्त्र-हीन हो
कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ…

कहो कैसे चीर बढ़ाऊँ...

सुनीता(शानू)

33 comments:

  1. डा. रमा द्विवेदी said....


    आधुनिकता की अंधी होड़ में दौड़ती बालाओं पर अच्छा व्यंग्य है....पर कुछ थोड़ा और तराशा जा सकता था....बधाई...

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  2. सुनीताजी गुजराती ग़ज़ल के शायर शून्य पालनपुरी
    का शेर है-
    काम दुशासन नुं सहेलुं थई गयुं,
    वस्त्र खुद काढ़ी रही छे द्रोपदी.
    अर्थात आज दुशासन का काम आसान हो गया है द्रौपदी अपने वस्त्र खुद निकाल रही है.

    आपकी रचना पसंद आयी.
    डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.

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  3. कमाल लिखा है शानूजी

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  4. मजेदार व्यंग्य है

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  5. सुनीता जी, आप प्रेम, सौंदर्य के अतिरिक्‍त विद्रूप पर करारा चमाटा मारने में भी उतनी ही सक्षम हैं यह आपकी यह कविता कहती है । सचमुच में जिस तरह से आपने इस कविता के अंतिम पक्ति में अपने आराध्‍य से अपनी भावनायें प्रस्‍तुत करवाती है वह समाज को आईना दिखलाने का सटीक भाव है । बधाई हो सुन्‍दर व्‍यंग कविता के लिए । अब चक्रधर जी का आर्शिवाद लो और बढे चलो इस विधा में भी आपकी पकड सराहनीय है । पुन: बधाई ।

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  6. वाह क्या बात है सुनीता जी आपकी कलम तो बढ़िया चौतरफ़ा चल रही है!!

    बढ़िया रचना, बधाई!!

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  7. अरे ! आप तो सौन्‍दर्य प्रसाधन एवं डिजायनर वस्‍त्र उत्‍पादन कम्‍‍पनियों की बैरन बन गई हैं!! बहुत सुन्‍दर ।

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  8. अब मैं क्या कहूं. कुछ बचा है क्या? मन पखेरू उड़ने के लिए डैने फैलाये तैयार खड़ा है.

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  9. waah waah...bahut achha likha hai (mara hai-tamachaa).....ise aap aur badha sakti hai.....naye kirdaar jod kar.....
    Badhayi....

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  10. अच्छा व्यंग्य है पर एक पारा नंदकिशोर एवम् कंपनी सरीखे नवयुवकों के गिरते नैतिक मूल्यों पर भी जोड़् देतीं तो दोनों ओर का नैतिक खोखलापन सामने आ जाता।

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  11. Sunita ji:

    achha vyang hai.. saral bhasha lekin gaharaa sandesh... prabhavpurn rachana ke liye badhai

    Akash

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  12. आपका व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के खिलाफ भाव लिखे हैं। वस्त्र पहनना या तकरीबन पहनना व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के domain में आता है। महज इसके लिये किसी भी violence को accept करना गुनाह है।

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  13. अच्छा व्यंग्य है-बधाई.

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  14. रचना अच्छी है, इसमें तनिक् भी संदेह की गुंजाइश नही ।
    किन्तु रचना में कोई नयापन बिल्कुल भी नही था ।
    पढकर ये नही लगा कि सुनिता दी' की कविता है, क्योंकि उनकी रचना हमेशा एक ऐसा कलेवर प्रस्तुत करती है, जो ताज़गी लिये होता है ।
    कविता का अंज़ाम ज़रुर सटीक लगा ।

    साभार,
    आर्यमनु

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  15. अच्छा लिखा है सुनीता जी....बधाई

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  16. Very true.. good to read.. hard truth...

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  17. सुनीता जी,
    अब तो हमारी स्थापित मान्यता और संस्कारों के पुनरावलोकन का संकटकाल है.आज के विद्रुप पर एक सटीक व्यंग.

    -Dr.RG

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  18. कविता में मन मी भावना का अगर ऐहसास न हो…उसमें आधुनिकता न हो तो वह कविता समयवाह्य हो जाती है आपके इस प्रयास को सलाम है पर…कृष्ण की लीला पर ही आपकी यह कविता व्यंग करती है… चाहे इसे कितनी ही सहजता से क्यों न लिखा जाए…।

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  19. :-) अच्छी है :-)

    इसे भी पढ़ें ... किसी और कि दास्तान

    http://kakesh.blogspot.com/2007/07/blog-post_08.html

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  20. आपकी रचना पढ़ कर मन अहृलादित हो उठा, बस एक ही शब्‍द निकल रहा है।
    बहुत खूब

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  21. बहुत ही सुन्दर व्यंग है सुनीता जी...आज के कृष्णो और द्रौपदियो पर अच्छा कटाक्ष किया है.
    बधाई.

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  22. सुनीता जी,
    आधुनिकता व फैशन के नाम पर अपनी मर्यादा को ताक पर रखने वाली आधुनिक पीढ़ी पर आपका यह व्यंग्य, बहुत अच्छा लगा. परंतु दोषी हमारा सारा समाज है जो अपनी नयी पीढ़ी को मर्यादित नहीं कर पा रहा है. आज माता-पिता अपने बच्चों के भौतिक और मानसिक विकास के प्रति तो जागरूक हुये हैं पर उनके नैतिक विकास के प्रति वे उदासीन ही नज़र आते हैं. अत: इस परिस्थिति के लिये सारा समाज दोषी है, सिर्फ युवा पीढ़ी ही नहीं.

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  23. सुनीताजी
    आपकी रचना पसंद आयी.
    रचना अच्छी है,

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  24. सटीक व्यंग्य।

    मैंने संभवतया: इसे सबसे पहले पढ़ा था मगर उस समय व्यस्त होने के कारण टिप्पणी न दे सका, उसका नतिजा यह हुआ कि जो पहले पायदान पर होती, वह अब 28वें पायदान पर है :(

    बधाई!!! उम्मीद है आपके लिखे का असर होगा।

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  25. सुनीता जी आज़ ही आपका ब्लॉग देखा सभी रचनायें पढ़ी बहुत अच्छा लिखती हैं आप, आपको इन सभी रचनओं के लिये बहुत-बहुत बधाई।

    ये बहुत अच्छा कटाक्ष किया है, आपने बहुत-बहुत बधाई।

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  26. आपने नारी होते हुये भी जिस विषय पर लिखा वो अपने आप में सराहनीय है... वस्तुत: कुछ महिलायें व लडकियां आधुनिकता के नाम पर अपने व्यक्तिगत जीवन में और एडवर्टाइसमेंट के नाम पर कवर पेज पर अपनी अभद्र और अर्धनग्न तस्वीर छपवाने में भी परहेज नहीं करती.. ऐसे में ईश्वर भी क्या करेंगे...

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  27. चीर हरण के इक नाटक में किसको क्या क्या याद रहा
    कॄष्ण लूटता लाज, बचाने वाला आज दु:शासन है

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  28. समाज के खॊखलेपन कॊ जाहिर करती उत्तम रचना।

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  29. सटीक कटाक्ष
    सुनीता जी, ऐसे प्रयास होते रहने चाहिये शायद कुछ सुपरिणाम सामने आयें

    बधाई

    सस्नेह
    गौरव शुक्ल

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  30. मैं बड़ा आलसी हूँ इतनी अच्छी कविता बहुत देर से पढ़ पाया... खैर

    अच्छा लगा

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य