चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Sunday, January 20, 2013

आँखें




आँखें

होंठ चुप रहें सवाल पूछती हैं आँखें
देखें कैसे बेहिसाब बोलती हैं आँखें
मौन ठहरा है दोनों के बीच में मगर
खामोशियों को फिर भी तोड़ती हैं आँखें...

शानू

21 comments:

  1. और क्या क्या कहती है ये आँखे :)

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  2. किसकी हैं ये आखें, बहुत खूबसूरत हैं ये आँखें!

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    1. सुनीता जी की ही लगती हैं।

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    2. शुक्रिया डॉ साहब दोस्त हैं तो पहचान ही लेंगे... :) अज़नबी की तरह सवाल तो न होंगे :)

      अरविंद जी पहचानने की कोशिश कीजिये...अरे हाँ आपका चश्मा कहाँ है? :)

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  3. तस्वीर से झर रहा है यह मुक्तक।
    उम्दा। .

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  4. दिल का राज खोलने लगती है,
    निगाहें जबभी बोलने लगती हैं।
    उम्दा शानू जी !

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    1. क्या बात है शुक्रिया गोदियाल साहब।

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  5. बहुत ही प्यारी बात कही है आपने ...
    बहुत खूब।।
    :-)

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  6. वाकई सुनिता जी,आँखों की भाषा भी बडी अजीब है-बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह देती हैं,शर्त ये है कि उन आँखों को देखने वाली आँखें भी वह भाषा समझती हों! सारगर्भित रचना ।

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    1. ये तो सच है देखने वाले की आँखें भी समझती हों...लेकिन एक और बड़ा सच है कविता सिर्फ़ कल्पना ही नही होती कुछ होता है तो कविता बनती है तो समझिये कि भाषा समझने वाला भी है उन्ही पर लिखी है ये पंक्तियाँ :)

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  7. खामोश आँखें बहुत कुछ कहती हैं ...

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  8. आँखें बहुत कुछ बोलती हैं ....

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  9. जी हाँ आँखें दिल की जुबाँ होती हैं...

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  10. बोलती आंखें, गुनगुनाती आंखें, बिना होंठों के फुसफुसाती आंखें,
    आखों की भाषा है अलग ,
    बिना भाषा के नयी परिभाषा हैं आंखें..

    बेहतरीन ...

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  11. वाह .... बहुत खूब .... आज कल कहाँ हैं आप ?

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अंतिम सत्य