चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, August 18, 2009

मासूमियत के हनन की तस्वीर





उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...


कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते

छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर
उत्पीड़न से मासूमियत के हनन की तस्वीर


मगर फ़िर भी
यन्त्रचालित सा
हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...

एक के ऊपर एक करीने से जमा
जूठे बर्तन उठाते उसके हाथ
नही देते थे गवाही उसकी उम्र की
मासूम अबोध आँखों को घेरे
स्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे
कि सबको खिलाने वाले उसके ये हाथ
जरूरी नही की भरपेट खिला पायेंगे
उसी को....



सुनीता शानू

19 comments:

  1. बहुत मार्मिक रचना...बधाई...
    नीरज

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  2. samvedanaon...ko kuredati huyee.
    sochane par mazboor karti ek kavita..

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  3. सच तो यही है। रचना संवेदित करती है सुनीता जी। साथ ही प्रश्न भी खड़ा है सामने में कि ऐसी मासूमियत को हनन करने वाली तस्वीरों से निजात कैसे पाया जाय? क्या हम सब इस तरह के बेबस मासूमों से प्रेमपूर्ण व्यवहार कर पाते हैं?

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. मासूम अबोध आँखों को घेरे
    स्याह गड्ढों ने भी शायद
    वक्त से पहले ही
    समझा दिया था उसे
    bahut hi marmik rachana,aise hi naa jane kitne haath kaam karte hai roj,kaash ishwar un sab haathon mein kalam thama sake.koshish shayad hamse hi karni hogi.ki thi koshish bhi ek baar,mgar naakaam rahe.uske ghar mein uske siwa kamanewalakoi nahi tha.?

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  5. उम्मीदों और खुशीयों से भरी
    एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
    चलाये जा रहा था
    हाथो को सटासट...

    बहुत संवेदनाओं से परिपूर्ण रचना. आभार

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  6. बढ़िया पोस्ट
    सुनीता शानू जी को बधाई।
    हम बाढ़ से जूझ रहे हैं।

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  7. इस मार्मिक कविता के बारे में टिप्पणी बाद में करेंगे. पहले तो यह बता दूँ कि तुम्हारी वापसी अच्छी लग रही है.

    अब जरा कम से कम हफ्ते में दो कविताओं का कोटा निश्चित कर लो!!

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  8. सुनीता शानू को शब्दों की रंगोली सजाना नहीं आता,वो मानवीय जीवन की संवेदनाओं को जैसी हैं वैसे ही उकेर देती हैं ,ऐसे में होता ये है कि पाठक खुद भी कविता का हिस्सा बन जाता है ,जैसा की इस कविता में हो रहा हैं ,ऐसे में उनकी कविता सबकी कविता बन जाती है|यही बात सुनीता जी को विशिष्ट बनती है हमारी ढेर सारी शुभकामनायें |

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  9. ghumane wali photo achchi lagaye aapne..

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  10. नारी मन ही ऐसी संवेदा दृष्टि रख सकता है. बधाई. इस सोच के लिए.

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  11. समकालीन कविता के शिल्प में यह एक अच्छी कविता है और इसके सामाजिक सरोकार भी हैं ।

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  12. मार्मिक प्रस्तुति ..विडंबना है हमारे समाज की ...छोटे बच्चों से काम लेते हैं पर भर पेट भी नहीं खिला पाते ..

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  13. बहुत ही संवेदनशील रचना सच्चाई बयाँ कर रही है।

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य