उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...
कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते
छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर
उत्पीड़न से मासूमियत के हनन की तस्वीर
मगर फ़िर भी
यन्त्रचालित सा
हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...
एक के ऊपर एक करीने से जमा
जूठे बर्तन उठाते उसके हाथ
नही देते थे गवाही उसकी उम्र की
मासूम अबोध आँखों को घेरे
स्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे
कि सबको खिलाने वाले उसके ये हाथ
जरूरी नही की भरपेट खिला पायेंगे
उसी को....
सुनीता शानू
बहुत मार्मिक रचना...बधाई...
ReplyDeleteनीरज
samvedanaon...ko kuredati huyee.
ReplyDeletesochane par mazboor karti ek kavita..
सच तो यही है। रचना संवेदित करती है सुनीता जी। साथ ही प्रश्न भी खड़ा है सामने में कि ऐसी मासूमियत को हनन करने वाली तस्वीरों से निजात कैसे पाया जाय? क्या हम सब इस तरह के बेबस मासूमों से प्रेमपूर्ण व्यवहार कर पाते हैं?
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
मासूम अबोध आँखों को घेरे
ReplyDeleteस्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे
bahut hi marmik rachana,aise hi naa jane kitne haath kaam karte hai roj,kaash ishwar un sab haathon mein kalam thama sake.koshish shayad hamse hi karni hogi.ki thi koshish bhi ek baar,mgar naakaam rahe.uske ghar mein uske siwa kamanewalakoi nahi tha.?
उम्मीदों और खुशीयों से भरी
ReplyDeleteएक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...
बहुत संवेदनाओं से परिपूर्ण रचना. आभार
बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteसुनीता शानू जी को बधाई।
हम बाढ़ से जूझ रहे हैं।
संवेदनशील रचना
ReplyDeleteइस मार्मिक कविता के बारे में टिप्पणी बाद में करेंगे. पहले तो यह बता दूँ कि तुम्हारी वापसी अच्छी लग रही है.
ReplyDeleteअब जरा कम से कम हफ्ते में दो कविताओं का कोटा निश्चित कर लो!!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
हम कितने मजबूर हैं
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
सुनीता शानू को शब्दों की रंगोली सजाना नहीं आता,वो मानवीय जीवन की संवेदनाओं को जैसी हैं वैसे ही उकेर देती हैं ,ऐसे में होता ये है कि पाठक खुद भी कविता का हिस्सा बन जाता है ,जैसा की इस कविता में हो रहा हैं ,ऐसे में उनकी कविता सबकी कविता बन जाती है|यही बात सुनीता जी को विशिष्ट बनती है हमारी ढेर सारी शुभकामनायें |
ReplyDeletebahut achchi rachanaa hai.
ReplyDeleteghumane wali photo achchi lagaye aapne..
ReplyDeleteनारी मन ही ऐसी संवेदा दृष्टि रख सकता है. बधाई. इस सोच के लिए.
ReplyDeleteसमकालीन कविता के शिल्प में यह एक अच्छी कविता है और इसके सामाजिक सरोकार भी हैं ।
ReplyDeletebahut achchi rachanaa hai.
ReplyDeleteGood poem..
ReplyDeleteapaki rachanay bahut bhav puran hay
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति ..विडंबना है हमारे समाज की ...छोटे बच्चों से काम लेते हैं पर भर पेट भी नहीं खिला पाते ..
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील रचना सच्चाई बयाँ कर रही है।
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