चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, April 8, 2008

धरती का गीत


धरती पर फ़ैली है,सरसों की धूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी ॥


फ़ूट पड़े मिट्टी से सपनों के रंग
नाच उठी सरसों भी गेहूं के संग।
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे अंग।


धरती के बेटों की आन-बान भूप-सी
धरती बन आई है,नवरंगी रूपसी॥


बाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
आँखों में कौंध गया, बिजली-सा नेह।
सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।


धरती-सी गृहणी की,कामना अनूप-सी
धरती बन आई है, नवरंगी रूपसी॥


धरती ने दे डाले अनगिन उपहार,
फ़िर भी मन रीता है,पीर है अपार।
सूने हैं खेत और, खाली खलिहान-
प्रियतम के साथ बिना जग है निस्सार।


धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥

सुनीता शानू

22 comments:

  1. जितने सुहावन शब्द
    उतना ही मनभावन चित्र

    ReplyDelete
  2. संजय भाई यह हमारे राजस्थान का चित्र है...:)

    ReplyDelete
  3. अद्भुत भाव,सुनिता जी बेसाखी का एक तोहफ़ा, धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. बहुत उम्दा. शब्दों का कमाल. भाव बेमिसाल.

    ReplyDelete
  5. तस्वीर, फिर रंग, फिर शब्द और फिर कविता... वाह ! बहुत अच्छा !

    ReplyDelete
  6. सुनीता जी मैं आज ही आपसे कह रहा था कि राकेश खंडेलवाल जी मेरे पसंदीदा कवि हैं और आपने उन्‍हीं की शैली में एक गीत लिख कर मुझे चौंका ही दिया । अद्भुत प्रयोग किये हैं आपने इसमें विशेषकर काफियाबंदी करते समय तो बात को खूब निभाया है हां एक जगह पर आप टाइपिंग की गलती कर गईं हैं उसको ठीक कर लें
    बाजरे की कलगी-सी, नाच उठी देह
    आँखों में कौंध गया, बिजली-सा ने।
    सोने की नथनी और, भारी पाजेब-
    छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।
    इसमें बिजली सा नेह पूरा टाइप नहीं हो पाया है केवल ने ही आकर रहा है । बाकी गीत के बारे में क्‍या कहूं अच्‍छा प्रयोग है । देर से पढ़ने के कारण मुझसे पहले काफी लोग टिप्‍पणी कर गए हैं । आशा है इतने सुंदर गीत और भी मिलेंगें पढ़ने को ।

    ReplyDelete
  7. respected sunitaji ,
    behad sundar chitra kheecha hai
    aapne !!

    ReplyDelete
  8. बेहद सुन्दर तस्वीर बनायी है आपने अपने शब्दो के माध्यम से... सच मे अपना राजस्थान याद आ गया... बधाई स्वीकार करें..

    ReplyDelete
  9. सुनीता जी.. आप तो बधाई की पात्र हैं...इतना सुंदर गीत..कदम दर कदम..तेजी से बढ़ते हुए..मेरी हार्दिक शुभकामनाएं...

    ReplyDelete
  10. बहुत सुंदर कविता है आपकी कविता ने मन मोह लिया है

    ReplyDelete
  11. बहुत ही उम्दा गीत है. इसे तो पॉडकास्ट भी करना चाहिये. आनन्द आ गया. अब सुनने का इन्तजार है. बधाई.

    ReplyDelete
  12. खूबसूरत ,निर्मल ओर धरती को शुक्रिया अदा करता गीत ........

    ReplyDelete
  13. प्रकृति में मानवीकरण दिल को मोह लेता है और आपकी कविता ने दिल मोह लिया है.

    ReplyDelete
  14. वाह सुनीता जी ..बहुत खूबसूरत चित्रण. झूमते गाते खेत नज़रों के सामने तैर गए !

    ReplyDelete
  15. निश्चय ही आ्पकी रचनायें उत्कृष्ट हुआ करती है,
    इनको इस नाचीज़ की प्रसंशा की आवश्यकता तक
    नहीं है ।



    फिर भी इतने अभिभूत क्षणों में भी, मैं अपनी
    असहमति दर्ज़ करवाने से नहीं चूकूँगा ...



    आपभी सहमत होंगी कि इतनी कोमल भाव एवं
    मन से लिखी रचनायें, अति अंतरंगता को कितना
    उद्वेलित करती हैं ।

    इनको चाय की प्याली के साथ एकीकृत न करें,
    इससे इन भावाव्यक्ति की अस्मिता खंडित होती है ।


    नमस्कार !

    ReplyDelete
  16. बड़ा सुंदर गीत है.. बधाई
    चित्र वाकई बहुत बढ़िया है

    ReplyDelete
  17. bahut khub


    shakher kumawta


    kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  18. धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
    धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥

    vaah! kya shaandaar kavita hai aapki,shaanu ji.
    baar baar padhne ka man karta hai.
    phir bhi dil nahi bharta hai.
    yah to sachmuch aapki halchal ki shaan hai,ji.

    ReplyDelete

स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य