चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Friday, December 25, 2015

ताकि प्रेम बना रहे

मेरी नर्म हथेली पर 
अपने गर्म होंठों के अहसास छोड़ता 
चल पड़ता है वो
और मै अन्यमनस्क सी
देखती हूँ अपनी हथेली
काश वक्त रूक जाये,
बस जरा सा ठहर जाये
लेकिन तुम्हारे साथ चलते 
घड़ी की सुईयां भी दौड़ती सी लगती है 
धीरे से मेरा हाथ मेरी गोद में रखकर,
हौले से पीठ थपथपाता है वो
अच्छा चलो-
अब चलना होगा,
सिर्फ प्रेम के सहारे ज़िंदगी नहीं कटती,
कुछ कमाई करलें 
तो प्रेम भी बना रहे, 
लेकिन मैने कब माँगा है तुमसे कुछ! 
वह सिर्फ मुस्कुराया और चल दिया
मै देखती रही...
बढता, गहराता, इठलाता, खूबसूरत प्रेम 
जो मेरे बदन से लिपटी रेशमी साड़ी सा 'मुलायम, 
घर में बिछे क़ालीन सा शालीन,
और भारी-भरकम वेलवेट के गद्दों सा गुदगुदा बन गया था
मेरी नर्म हथेली पर नमी सी थी
दूर कहीं लुप्त हो गई थी 
इमली के पेड़ पर पत्थर से उड़ती चिड़िया, 
लुप्त हो गई थी 
दो जोड़ी आँखे जो कोई फ़िल्मी गीत गुनगुनाती 
एक आवारा ख़्वाब बुना करती थी, 
हाँ प्रेम को ताउम्र बनाये रखना 
ही जरूरी होता है...।
शानू


5 comments:

  1. बहुत सुन्दर ...
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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  2. अति सुन्दर कविता..बधाई

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  3. बेहद सुन्दर. लिखते रहिये.

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य