दोस्तो रोजमर्रा की जिन्दगी में कहीं आप भी कुछ भूले तो नही? अगर लगता है कुछ भूल रहे है तो हो सकता है याद आ ही जाये आपको भी... एक छोटी सी पेशकश है...
-घर से ऑफ़िस-
-ऑफ़िस से घर-
-आते जाते-
-हमेशा भूल जाता हूँ...
-मगर आज सब याद है-
-बेटा ये लो तुम्हारा चॉकलेट-
-ठीक है न-
-मुन्नी तुम्हारी गुड़ीया भी-
-और तुम्हारी यह लाल साड़ी-
-हाँ लाल ही लानी थी न...
-देखा...मुझे सब याद है-
-है न-
-बेटा.... बहुत दिनों से दर्द है-
-अब सहन नही होता-
-क्या आज डॉक्टर से अपाईंटमेंट ले लिया...?
-ओह्ह! .....बाबूजी... आज फ़िर भूल गया-
-मेरी याददास्त को जाने क्या हो गया है...
सुनीता शानू
-
गज़ब का दर्द है और जमाने की ट्रेजडी भी।
ReplyDeleteसरल शब्द ....गहरी बात....
ReplyDeleteआज घरों में ही दोहरा मापदंड अपनाया जाने लगा है।माँ-बाप के लिए कुछ और बीवी बच्चों के लिए कुछ....
क्या बात है!!!
ReplyDeleteआपकी यह रचना गहन विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति है. साहित्य दरअसल मानव मन के रहस्यों को भेदने की और उनकी तह तक पहुँचने की कोशिश है.इसके साथ ही साहित्य पर मानव जीवन के उदात्त मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने का वृहद उत्तरदायित्व भी है. जिस रचना में मानव जीवन के सरोकारों को अनदेखा किया जाता हो वह रचना दिग्भ्रमित होती है और उसका कोई सामाजिक मूल्य नहीं होता.मैं आपकी रचनाओं को ध्यान से पढ़ रहा हूँ . उनमें सामाजिक सरोकारों के प्रति विश्रन्खालता की कमी मुझे खटकती थी.आपकी पिछली कुछ रचनाओं को पढ़ते हुए यह कमी दूर होने की आश्वस्ति होती है. आपकी कलम गंभीर हुई है और उसने अपने दायित्व को पहचान भी लिया है.
ReplyDeleteएक अच्छी और सशक्त रचना के लिए बधाई स्वीकारें और वादा करें की ऐसी ही रचनाएं हमेशा देती रहेंगी.
आनंदकृष्ण जबलपुर
मोबाईल : 09425800818
उत्तम
ReplyDeleteबहुत मर्म स्पर्शी रचना...सीधे तीर की तरह देल में गहरे उतर गई.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अच्छी कविता है सुनीता जी काफी दिनों से आप ग़ज़ल की कक्षाओं में नहीं आ रहीं हैं । वैसे आपके वीडियों भी मैंने देखे थे राकेश जी और समीर जी वाले आपने तो अच्छा आयोजन जुटाया था ।
ReplyDeleteउफ़ इतना झकझोरने देने वाला सत्य।
ReplyDeleteवाकई हम लोग इतने स्वार्थी हो गये हॆं कि अपने
ReplyDeleteबीवी बच्चों के अलावा,बुजुर्गॊं के दु:ख-दर्द दिखाई ही नहीं देते.बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
आज के सोच की नब्ज़ पर आपकी पकड़ बिल्कुल सटीक है । बल्कि मैंने तो देखा है, कि स्त्री भी इस
ReplyDeleteअसंपृक्त सोच कि शिकार है, यदि वह कहे तब भी , ध्यान तभी दिया जाता है जब घर में होटल से खाना मँगाने की नौबत आती है । चलो इसकी कुछ रिपेयरिंग करवा दें । बाबूजी तो रिपेयरिंग के बाद किसी काम के नहीं ! अलबत्ता यदि उन्होंने कुछ नगदी और ज़ायदाद के कागज़ों पर अपना नियंत्रण रख छोड़ा है, तो बात दीगर ।
मैं तो नित्य देखता हूँ, किंतु काश आपकी तरह
व्यक्त कर पाता ।
यदि प्रसंशा कुछ अधिक हो गयी हो तो संपादित
कर लें, फिर भी कविता अच्छी है ।
बडे बडे शहरों मे छोटी छोटी बातें होती रहती हैं॥ इतना आदर्श संसार ना कभी था ना होगा दुनिया रोती रहती है।
ReplyDeleteकविता सुन्दर है। हांलाकि विचारो से सहमत होना जरूरी नहीं
"ओह्ह! .....बाबूजी... आज फ़िर भूल गया-"
ReplyDeleteआधुनिकीकरण और भौतिकवाद के दौर में रिश्तों पर संक्रमण का बखूबी चित्रण किया है , आपने.
आप के भावों का स्रोत क्या है जी..
ReplyDeleteye sirf umr-daraaz logon kaa ya yuvaaon kaa bhool jaane kaa dard naheen hai aur naa hee iske koi sarvjaneen kaaran hee hain. ye dar-asl puraanee peedhee kee kaalaateet hote jaane kaa dard hai aur ismen us peedhee ke saare sanskaar, sRujan, sansthaapnaayen aur sarokaaron ke bhoole jaane se vyutpann aashankaaon ke dard bhi hain. rachnaa saarthak bahas kaa ek mazboot platform banaatee hai.
ReplyDeleteanandkrishan, jabalpur
phone- 09425800818
aane chitro ko jaban dedi kya creativity hai.congratulation.
ReplyDeletechandrapal
kya aap ki family sahitya sanskarovali he.
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