राजस्थान डायरी में प्रकाशित एक कविता
कहां चले तुम गांव लेकर
सुनो श्रमिक
कहां चले तुम गांव लेकर
शहर की पूरी छांव लेकर
पढ़ा था मैंने
दिल्ली है दिल वालों की नगरी
न जाने कितने गांव आते हैं
दिल्ली में छांव पाते हैं...
फिर देखा मैंने
दिल्ली की चकाचौंध बनाते गांवों को
खून पसीना बहाने वालों को
मिली रहने को झुग्गी बस्तियां
बदबूदार अंधेरी तंग गलियां
फिर भी
गांव जीते रहे बरसों बरस
एक उजाले की उम्मीद लिए
कि शहर से गांव जब जाएंगे
गांव वाले हमें बाबू बुलाएंगे
फिर सुना कि...
दिल्ली का दिल बहुत बड़ा है
हाथ पकड़ने को यहां
हर आदमी खड़ा है
हम दिल वाले, दिल में रहते हैं
कल की फ़िक्र लिए...
कभी अपनी, तो कभी
अपनों की फ़िक्र में रहते हैं
नहीं सुन पाए रुदन बस्तियों का
नहीं देख पाए कि
शुरू हो चुका है पलायन
फिर यह भी देखा...
दिल्ली नहीं रोक पाई
सड़क बनाने वालों को
खून पसीना एक कर
फैक्ट्री चलाने वालों को
दिल्ली नहीं दे पाई रोटी,
रोटी बनाने वालों को
दिल्ली का दिल
इतना संगदिल
अब सोचती हूं
जाने अब कब उठेगी दिल्ली
संवरेगी उभरेगी और
निखरेगी दिल्ली...
दिल्ली के दिल में फंगस लगी है
और हम सोशल डिस्टेंसिंग बनाए
पूरे के पूरे गांव को बस में ठूंसते
बस देख रहे हैं...
सुनीता शानू
बहुत खूब
ReplyDeleteशुक्रिया जी
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteशुक्रिया शास्त्री जी अपने ब्लॉग का लिंक भी शेयर कीजिए।
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