चंद बासी रोटियां
किसी बासी याद की तरह
पड़ी रही थी रात भर
छुआ तो लगा कि
कुछ नमी सी है अभी
शायद रात-भर रोई थी
या इनकी गर्मी ही
इनपर बरस रही थी पानी बनकर
जो बचाए हुए थी सुबह तक
इनको कठोर होने से
मैंने भी बासी रोटियां उठाई
सहलाई कि जाया नहीं होने दूंगी इनकी ख़ुशबू
बचा लूंगी इनकी नमी को
जैसे कुछ रिश्तों को बचाने की कोशिश भी
करती रहती हूं मैं
नमी सूखने और कठोर होने तक।
सुनीता शानू
Tuesday, April 21, 2020
चंद बासी रोटियां
Thursday, April 16, 2020
पंछी तुम कैसे गाते हो
पंछी ! तुम कैसे गाते हो-?
अपने सारे संघर्षों मे तुम-
कैसे गीत सुनाते हो-?
जब अपने पंखों को फ़ैला-
तुम आसमान में उड़ते हो।
तब कोई न तुमको रोक सके-
तुम सीधे प्रभु से जुड़ते हो।
पर बोलो-! किस ताकत से तुम
यह इंद्रजाल फैलाते हो-?
पंछी ! तुम कैसे गाते हो-?
बच्चे राह देखते होंगें-
यह चिंता विह्वल कर देती।
पर उनकी आँखों की आशा
पंखों को चंचल कर देती।
तुम महा विजेता बनकर जब
दाना लेकर घर आते हो।
पंछी ! तुम कैसे गाते हो?
अपने सारे विद्रूपों में-
जीने की ऎसी अभिलाषा-!
पीड़ा के महायुद्ध में भी
माधुर्यमयी ऎसी भाषा
पंछी तुम छोटे हो कर भी-
जीवन का सार बताते हो।
पंछी-! तुम कैसे गाते हो-?
सुनीता शानू
Saturday, April 11, 2020
कहाँ चले तुम गाँव लेकर
राजस्थान डायरी में प्रकाशित एक कविता
कहां चले तुम गांव लेकर
सुनो श्रमिक
कहां चले तुम गांव लेकर
शहर की पूरी छांव लेकर
पढ़ा था मैंने
दिल्ली है दिल वालों की नगरी
न जाने कितने गांव आते हैं
दिल्ली में छांव पाते हैं...
फिर देखा मैंने
दिल्ली की चकाचौंध बनाते गांवों को
खून पसीना बहाने वालों को
मिली रहने को झुग्गी बस्तियां
बदबूदार अंधेरी तंग गलियां
फिर भी
गांव जीते रहे बरसों बरस
एक उजाले की उम्मीद लिए
कि शहर से गांव जब जाएंगे
गांव वाले हमें बाबू बुलाएंगे
फिर सुना कि...
दिल्ली का दिल बहुत बड़ा है
हाथ पकड़ने को यहां
हर आदमी खड़ा है
हम दिल वाले, दिल में रहते हैं
कल की फ़िक्र लिए...
कभी अपनी, तो कभी
अपनों की फ़िक्र में रहते हैं
नहीं सुन पाए रुदन बस्तियों का
नहीं देख पाए कि
शुरू हो चुका है पलायन
फिर यह भी देखा...
दिल्ली नहीं रोक पाई
सड़क बनाने वालों को
खून पसीना एक कर
फैक्ट्री चलाने वालों को
दिल्ली नहीं दे पाई रोटी,
रोटी बनाने वालों को
दिल्ली का दिल
इतना संगदिल
अब सोचती हूं
जाने अब कब उठेगी दिल्ली
संवरेगी उभरेगी और
निखरेगी दिल्ली...
दिल्ली के दिल में फंगस लगी है
और हम सोशल डिस्टेंसिंग बनाए
पूरे के पूरे गांव को बस में ठूंसते
बस देख रहे हैं...
सुनीता शानू
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पंछी ! तुम कैसे गाते हो-? अपने सारे संघर्षों मे तुम- कैसे गीत सुनाते हो-? जब अपने पंखों को फ़ैला- तुम...
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एक छोटा सा शहर जबलपुर... क्या कहने!!! न न न लगता है हमे अपने शब्द वापिस लेने होंगे वरना छोटा कहे जाने पर जबलपुर वाले हमसे खफ़ा हो ही जायेंगे....