चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, June 16, 2020

छुपे हुए ख़त

मोहब्बत के अवशेष
सब कुछ खत्म होने के बाद भी
कुछ अवशेष बचे रह जाते हैं 
जो बताते हैं कि खत्म कुछ नहीं होता
रबर से मिटाने पर भी काग़ज़ पर
अक्षर अपना निशान छोड़ जाते हैं
वैसे ही तुम्हारा आना और
मेरी प्रोफाइल में झांकना दर्ज होगा एक सदी में
कि यह तुम्हारे सकुशल होने का संदेश भर है
जब कभी सोशल मीडिया की फाइलें खंगाली जाएंगी
न जाने कितने प्रेम पत्र मिलेंगे 
कुछ सेव कुछ डिलीट किए 
कुछ छूट गए होंगे 
तुम्हें जवाब देने की प्रतिक्षा में
ये अवशेष मोहब्बत की नई दास्तान सुनाएंगे
इन्हें कम मत आंकिए 
यह किसी की अंतिम सांसों का हिसाब होंगे
इनमें जी रही होगी एक सभ्यता
जो खामोशी से दफ़न हो गई होगी
यह हरगिज़ कम नहीं होंगे
मोहन-जोदड़ो या हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से भी।

Tuesday, April 21, 2020

चंद बासी रोटियां

चंद बासी रोटियां
किसी बासी याद की तरह
पड़ी रही थी रात भर
छुआ तो लगा कि
कुछ नमी सी है अभी
शायद रात-भर रोई थी
या इनकी गर्मी ही
इनपर बरस रही थी पानी बनकर
जो बचाए हुए थी सुबह तक
इनको कठोर होने से
मैंने भी बासी रोटियां उठाई
सहलाई कि जाया नहीं होने दूंगी इनकी ख़ुशबू
बचा लूंगी इनकी नमी को
जैसे कुछ रिश्तों को बचाने की कोशिश भी
करती रहती हूं मैं
नमी सूखने और कठोर होने तक।
सुनीता शानू

Thursday, April 16, 2020

पंछी तुम कैसे गाते हो


              पंछी ! तुम कैसे गाते हो-?
अपने सारे संघर्षों मे तुम-
              कैसे गीत सुनाते हो-?
जब अपने पंखों को फ़ैला-
तुम आसमान में उड़ते हो।
तब कोई न तुमको रोक सके-
तुम सीधे प्रभु से जुड़ते हो।

पर बोलो-! किस ताकत से तुम 
           यह इंद्रजाल फैलाते हो-?
           पंछी ! तुम कैसे गाते हो-?

बच्चे राह देखते होंगें-
यह चिंता विह्वल कर देती।
पर उनकी आँखों की आशा
पंखों को चंचल कर देती।
तुम महा विजेता बनकर जब
            दाना लेकर घर आते हो।
            पंछी ! तुम कैसे गाते हो?
अपने सारे विद्रूपों में-
जीने की ऎसी अभिलाषा-!
पीड़ा के महायुद्ध में भी
माधुर्यमयी ऎसी भाषा
पंछी तुम छोटे हो कर भी-
            जीवन का सार बताते हो।
            पंछी-! तुम कैसे गाते हो-?
सुनीता शानू

Saturday, April 11, 2020

कहाँ चले तुम गाँव लेकर


राजस्थान डायरी में प्रकाशित एक कविता

कहां चले तुम गांव लेकर

सुनो श्रमिक
कहां चले तुम गांव लेकर
शहर की पूरी छांव लेकर
पढ़ा था मैंने
दिल्ली है दिल वालों की नगरी
न जाने कितने गांव आते हैं
दिल्ली में छांव पाते हैं...
फिर देखा मैंने
दिल्ली की चकाचौंध बनाते गांवों को 
खून पसीना बहाने वालों को
मिली रहने को झुग्गी बस्तियां
बदबूदार अंधेरी तंग गलियां
फिर भी
गांव जीते रहे बरसों बरस
एक उजाले की उम्मीद लिए
कि शहर से गांव जब जाएंगे
गांव वाले हमें बाबू बुलाएंगे
फिर सुना कि...
दिल्ली का दिल बहुत बड़ा है
हाथ पकड़ने को यहां
हर आदमी खड़ा है
हम दिल वाले, दिल में रहते हैं 
कल की फ़िक्र लिए...
कभी अपनी, तो कभी 
अपनों की फ़िक्र में रहते हैं
नहीं सुन पाए रुदन बस्तियों का
नहीं देख पाए कि
शुरू हो चुका है पलायन
फिर यह भी देखा...
दिल्ली नहीं रोक पाई 
सड़क बनाने वालों को
खून पसीना एक कर 
फैक्ट्री चलाने वालों को
दिल्ली नहीं दे पाई रोटी, 
रोटी बनाने वालों को
दिल्ली का दिल 
इतना संगदिल
अब सोचती हूं
जाने अब कब उठेगी दिल्ली
संवरेगी उभरेगी और 
निखरेगी दिल्ली...
दिल्ली के दिल में फंगस लगी है
और हम सोशल डिस्टेंसिंग बनाए
पूरे के पूरे गांव को बस में ठूंसते 
बस देख रहे हैं...
सुनीता शानू

Tuesday, September 3, 2019

तुम्हारी उदासी






तुम जब भी उदास होते हो 
मै उन वजहों को खोजने लगती हूँ जो बन जाती है 
तुम्हारी उदासी की वजह 
और उन ख़ूबसूरत पलों को 
याद करती हूँ 
जो मेरी उदासी के समय
तुमने पैदा किये थे
मुझे हँसाने व रिझाने के लिये
काश! कभी तो मिटेंगे एक साथ ये उदासी के काले बादल
जब हम दोनों को
नहीं करना होगा जतन
एक दूसरे को हँसाने का
हम मिलकर हंसेंगे एक साथ

अंतिम सत्य