चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Saturday, July 18, 2009

वो सुन न सके



घूँघट की आड़ से,
आँसुओं की धार में,
पलके छुकाये
वो कहती रही
मगर....
वो सुन न सके

दीवारें सिसकती रहीं
कालीन भीगते रहे
कातर निगाहों से उन्हे
तकते रहे
मगर...
फ़िर भी वो सुन न सके

एक वही थी जो उन्हे
कह सकती थी
बहुत कुछ
मगर...
घर में जोर से बोलने का हक
सिर्फ़ उन्ही को था...

दिन पर दिन
आसुँओ से तरबतर
दीवारे दरक गई
ऒ कालीन फ़ट गये
सब्र का दामन छूटा,
घूँघट हटा, पलके उठी
वो चिल्लाई
मगर...
अब बाबूजी ऊँचा सुनते हैं....


सुनीता शानू

अंतिम सत्य