चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Tuesday, September 3, 2019

तुम्हारी उदासी






तुम जब भी उदास होते हो 
मै उन वजहों को खोजने लगती हूँ जो बन जाती है 
तुम्हारी उदासी की वजह 
और उन ख़ूबसूरत पलों को 
याद करती हूँ 
जो मेरी उदासी के समय
तुमने पैदा किये थे
मुझे हँसाने व रिझाने के लिये
काश! कभी तो मिटेंगे एक साथ ये उदासी के काले बादल
जब हम दोनों को
नहीं करना होगा जतन
एक दूसरे को हँसाने का
हम मिलकर हंसेंगे एक साथ

Wednesday, August 21, 2019

रिश्ते






रिश्ते निभाये जा रहे हैं 
सीलन, घुटन और उबकाई के साथ
रिश्ते निभाये जा रहे हैं 
दूषित बदबूदार राजनीति के साथ
रिश्तों में नही दिखती जरूरत अपनापन
रिश्ते दिखने लगे हैं दंभ के चौले से
मेरी तमाम कोशिशें नाकाम करने की ख़्वाहिश में
रिश्तों ने ओढ़ ली है काली स्याह चादर
डर है कहीं ये साज़िशें अपने नुकीले डैनो से 
तोड़ न दे संसार हमारा। 
सुनीता शानू

Saturday, August 11, 2018

*फिर मिलेंगे*




*फिर मिलेंगे*

ये मिलना मिलाना 
या फिर कहना कि 
फिर मिलना
या मिलने के लिये 
बस कह देना
कि फिर कब मिलोगे
मिलने का एक दस्तूर है बस
मिलने को जो मिलते हैं
वे कहते कब हैं मिलने की
मिल ही जाते हैं मिलने वाले
जिनको चाह है मिलने की
कहने भर से गर कोई मिलता
मिल ही जाता
न रहती उम्मीद की कोई
अब आयेगा, तब आयेगा
शायद शाम ढले 
वो आ पायेगा
या फिर
अटका होगा किसी काम में
या रोक लिया होगा
किसी राह ने
आज नहीं शायद वो
कल आयेगा
आना होता तो आ ही जाता
आने न आने के बीच 
न जाने कितने
बहाने बन जाते हैं
आने वाले आते ही हैं
न आने वाले बस कह जाते हैं
हाँ फिर मिलेंगे
जल्दी ही...

# सुनीताशानू

Thursday, August 31, 2017

ख्वाब एक माँ का...



 बढे जा रही हैं उम्र और
 मेरी उम्र के साथ-साथ बढ रहे हो 
तुम भी
और तुम्हारे साथ जी रही हैं
 मेरी उम्मीदें, मेरे ख्वाब
मै एक अलग ढँग की माँ हूँ
शायद अपनी माँ से भी अलग
मैने तुम्हें भी पा लिया था 
बचपन के अनछुये ख्वाबों में
वो ख्वाब 
जो शायद कम ही देखे जाते हैं
वो ख्वाब
जिनमें नहीं होता कोई राजकुमार या प्रेमी
हाँ अगर प्रेम था तो
सूर्य की तेज़ किरणो से
चाँद भी मेरे प्रेम में 
झाँकता था बादलों की ओट से 
प्रेम था तो माटी से 
जो सर्र से सरकती थी मेरे हाथों से
किसी रेशमी परीधान सी
मेरे प्रेम की गवाही 
ये पागल मस्त हवायें भी दे सकती हैं
जिनके साथ मेरे ख्वाब 
आसमान की ऊँचाईयों को छू पाते थे
शायद मै भी आजमाना चाहती थी
कुन्ती की तरह
ईश्वरीय शक्तियों को
मैने भी बुन लिये थे ख्वाब
माँग लिया था तुम्हें सपनों में ही
और शायद इसीलिये 
एक रोज तुम सचमुच आ गये
मेरे ख्वाबों को आकार देने
एक खूबसूरत  शिल्पकार से तुम 
तुम्हारे आते ही बदल गई थी जिंदगी
तुम्हारे आते ही मैने देखा था
तुम्हारे पिता की आँखों में खुशियों का सैलाब
तुम्हारे आने की महक से 
फ़ैल गई थी माटी की सौंधी खुशबू
धूप के साथ बरसता था पानी
तो कभी चाँद की चाँदनी झाँक रही थी
हमारी खिड़की से
तब लटका दिया था तुम्हारे गले में
नजर बट्टू नानी ने
कि बचाये रखना बाहर की तेज़ हवाओं से
धूप में झुलस न जाये देखना कहीं
और यह कह कर बंद कर दिये थे 
खिड़की के दरवाजे कि
काली रात को चली आती हैं
अलाये-बलायें
और तुम एक पाँव पर दूसरा पाँव धरे
जब मुस्कुराते नजर आये
मैने कहा था माँ से
देखो न ये तो वही रूप है
जिसे मैने कई मर्तबा देखा है
हाँ माँ भी जानती थी सब कुछ
माँ से कभी कुछ छुप नही पाता
जैसे नहीं छुप पाये तुम भी
है न आदित्य! 

सुनीताशानू

Tuesday, August 1, 2017

इंतज़ार


इंतज़ार तेरे पास आने का
इंतज़ार तुझे देख भर लेने का
इंतज़ार तुम्हे गले से लगा लेने का
इंतज़ार तुम्हारा माथा चूम कर हौले से हाथ दबाने का
इंतज़ार यह कहने का कि मै हूँ तुम्हारे लिये
इंतज़ार तुझसे मिलने का
मिलकर शिकायत करने का
कि तुम अब तक अकेले कैसे रहे
शिकायत यह भी कि
तुमको अब तक याद आई नहीं
आई भी तो उतनी नहीं ही आई होगी
जितनी की मुझे आती है
काश याद का कोई पैरामीटर हो
तो कही जाये वो तमाम बातें
तुम्हारे बग़ैर बीती हुई रातें
और जमाने भर की शिकायतें
शायद कहते वक्त
जुबां का साथ न दे पाये
आँख दे जाये धोखा और दिल बंद करदे धड़कना
और भी बहुत सी बातें हैं
मेरे-तुम्हारे इस इंतज़ार में
सुनो... सच कहूँ तो...
तुम्हें भी यह समझना होगा कि
मेरे तुम्हारे दरमियाँ
कभी दूरी होती ही नही है...।
#सुनीता शानू

Sunday, July 30, 2017

सैंड टू ऑल




सैंड टू ऑल की गई
तुम्हारी तमाम कविताओं में
ढूँढती हूँ वो चंद पंक्तियाँ
जो नितान्त व्यक्तिगत होंगी
जो लिखी गई होंगी
किसी ख़ास मक़सद से
किन्हीं ख़ास पलों में
सिर्फ मेरे लिये
नहीं होगा उन पर
किसी और की वाह वाही का ठप्पा भी
लेकिन
सैंड टू ऑल की गई सारी कवितायें
बिछी पड़ी हैं सबके आगे
सुनो!
कुछ नया लिखो न
सिर्फ मेरे लिये...
शानू

Friday, December 25, 2015

ताकि प्रेम बना रहे

मेरी नर्म हथेली पर 
अपने गर्म होंठों के अहसास छोड़ता 
चल पड़ता है वो
और मै अन्यमनस्क सी
देखती हूँ अपनी हथेली
काश वक्त रूक जाये,
बस जरा सा ठहर जाये
लेकिन तुम्हारे साथ चलते 
घड़ी की सुईयां भी दौड़ती सी लगती है 
धीरे से मेरा हाथ मेरी गोद में रखकर,
हौले से पीठ थपथपाता है वो
अच्छा चलो-
अब चलना होगा,
सिर्फ प्रेम के सहारे ज़िंदगी नहीं कटती,
कुछ कमाई करलें 
तो प्रेम भी बना रहे, 
लेकिन मैने कब माँगा है तुमसे कुछ! 
वह सिर्फ मुस्कुराया और चल दिया
मै देखती रही...
बढता, गहराता, इठलाता, खूबसूरत प्रेम 
जो मेरे बदन से लिपटी रेशमी साड़ी सा 'मुलायम, 
घर में बिछे क़ालीन सा शालीन,
और भारी-भरकम वेलवेट के गद्दों सा गुदगुदा बन गया था
मेरी नर्म हथेली पर नमी सी थी
दूर कहीं लुप्त हो गई थी 
इमली के पेड़ पर पत्थर से उड़ती चिड़िया, 
लुप्त हो गई थी 
दो जोड़ी आँखे जो कोई फ़िल्मी गीत गुनगुनाती 
एक आवारा ख़्वाब बुना करती थी, 
हाँ प्रेम को ताउम्र बनाये रखना 
ही जरूरी होता है...।
शानू


Thursday, December 24, 2015

खत

बहुत दिन हुए नहीं लिख पाई
लिखती तो तुम भी जान पाते
वो हजारों अनकही बातें
जो रात दिन बुनती हैं ख्वाब
ख्वाब जिसमें होते हो तुम और तुम्हारा खयाल
जब हम मिले थे पिछली दफ़ा
मेरे खयालों की पोटली सिमट गई थी
तुम्हारे इर्द-गिर्द
चुपचाप खामोशी के साथ
लेकिन मै
मै नहीं रह पाई थी खामोश
बतियाती रही तुम्हारी खामोश साँसों से
साँसे जो सड़क पर आये ब्रेकर सी उठती गिरती
बयां करती रही तुम्हारी बेचैनी
तुम शायद घड़ी की सुई से सड़क की दूरी नापते
सुन रहे थे आधी बातें
या फ़िर ठीक से सुन भी न पाये थे
सड़क के या अंदरूनी कोलाहल में
तुम्हारे मेरे दरमियां 
एक बेल्ट का रिश्ता भी होता है
जिसे तुम कभी भूलते नहीं हो
जो न तुम्हे हिलने देता है न मुझे डगमगाने
उसी बंधन में बंधी मैं
बाहर भीतर के कोलाहल से बेफ़िक्र होकर
देखती रही एकटक तुम्हारी ओर
कि तुम पलक झपकाते हुए या गेयर बदलते हुये
देखोगे बगल वाली सीट की ओर... 
मै भी मुस्कुरा दूंगी
या दौड़ती भागती सरपट इस सड़क पर
देख लोगे साइड मिरर में झाँकती मेरी आँखें को
सोचती हूँ
कल जब आओगे मै तुम्हारी सीट के पीछॆ ही बैठूंगी
जब देखोगे तुम बैक व्यू मिरर में
तो देख पाओगे
खिलखिलाती हँसी से सराबोर
इन आँखों को
जो न जाने कब से बहे जा रही हैं
सिर्फ़ तुम्हारे होठों पर एक मुस्कुराहट लाने के लिये...
शानू


Tuesday, November 3, 2015

तुम से "मै"

दिन बहुत हुये...
दिन नहीं साल हुये हैं
हाँ सालों की ही बातें है
जाने कितनी मुलाक़ातें है
गिन सकते हैं हम उँगलियों पर लेकिन
दिन...महिने...साल...
गिन लेने के बाद भी
गिनकर बता सकोगे!
बाल से भी बारीक उन लम्हों को 
जो बिताये है तुम्हारे साथ 
और साथ बिताने के इंतज़ार में 
ढुलकते आँसुओं का सूख जाना
लेकिन आज
उम्र के साथ और भी गहरे में
बैठ गया है तुम्हारा प्यार 
बेचैनी बढ़ जाने से 
आँखें ज्यादा नमीदार हो गई है
हाँ इंतज़ार आज भी उतना ही है
मेरे तुम से मिलने का
क्योकि तुमने ही कहा था एक दिन
मुझसे पूरे होते हो तुम 
और तुमसे मैं
तभी से मै 
मेरे भीतर बसे "तुम" से मिलकर 
हर दिन पूर्ण हो जाती हूँ...।
शानू


Monday, June 23, 2014

मेरे अल्फ़ाज़ बस मेरे हैं...



दोस्तों फ़ेसबुक पर विचित्र- विचित्र लोग बैठे हैंं, इधर उधर से कुछ भी उठाते हैं और लाइक शेयर बटोरते हैं, अभी एक महाशय  ने कहा कि क्या मै आपके अल्फ़ाज़ से बनी कविता मेरे नाम से पोस्ट कर सकता हूँ तो एक बार मैने सोचा क्या हर्ज़ है करने में, लेकिन मेरे ये अल्फ़ाज़ किसी खास के लिये थे... कैसे मै किसी ओर को अपने नाम से दे सकूंगी? उसने यह भी कहा कि आपकी वॉल पर कम कमैंट आये हैं शेयर भी तीन ही लोगों ने किया। मै अपने नाम से करके देखना चाहता हूँ या यूं समझे की दिखाना चाहता हूँ मुझे कितने कमैंट या शेयर आते हैं। दोस्तों आपका लाइक करना या शेयर करना आपके मेरे शब्दों से होकर गुजरने से कम नहीं है। पाठक को परखने का नहीं समझने का नजरिया चाहिये। लेकिन दिल मेरा है अल्फ़ाज़ मेरे हैं किसी ओर को उसका दायित्व हर्गिज़ नहीं दे सकती। मेरे अल्फ़ाज़ मेरी ही शैली में...

क्यों लगता है ऎसा
सब कुछ है पास मगर
कुछ भी नहीं है...
तू पास होकर भी 
क्यों पास नहीं है...
क्यों लगता है ऎसा
मेरी परछाई भी अब
मुझको डराती है
क्यों एक साँस विश्वास की
खोल देती है मुझको
परत दर परत
क्यों खामोशी आँखों की
साथ नहीं देती
मेरी तेज़ चलती जुबाँ का
क्यों लगता है ऎसा
हर लम्हा महफ़िल सा है
फिर भी तनहा है।
शानू

Friday, March 14, 2014

अधिकार या...




बनिये की बीवी बनियाईन
पंडित की बीवी पंडिताईन
या कहें कि
पति पर पत्नी का अधिकार
या फिर पत्नी को विरासत मे प्राप्त
ऎसी कुर्सी
जो मिल गई ब्याहता बनते ही
कुछ भी कहेंगें...
लेकिन 
खुद को
डॉक्टर की बीवी डॉक्टरनी
मास्टर की बीवी मास्टरनी
कहलाने वाली पत्नियाँ
उतारी जा सकती हैं
कभी भी
इस पद से
इस अस्थायी कुर्सी से
अनपढ़, गँवार, ज़ाहिल कह कर
अपमानित होकर
क्योंकि
खुद को घर, पति और बच्चों के बीच
होम करती स्त्री 
नहीं सोच पाती इतनी गहराई से
कि उसे भी चुनने होंगे
रास्ते अपने
मंजिले अपनी
स्वाभिमान के साथ
क्योंकि आज के परिवेक्ष में
गाड़ी के दोनों पहिये
हर तरह से
समान होने आवश्यक हैं।

शानू

Wednesday, March 5, 2014

ये ज़िंदगी किताब है...





ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन  ख्वाब है
पढ़ी गई, कि छोड़ दी,
आधी पढी ऒ मोड़ दी
जो जान के अंजान है
कहे कि दिल  नादान है
पल-पल यही खिताब है
गलतियाँ बेहिसाब है

खाई कसम ओ तोड़ दी
रंगत भी सब निचोड़ दी
ये छाँव है वो धूप है
ये प्रीत है वो भूख है
चेहरे पे इक नकाब है
फिर भी ये लाजवाब है
ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन ख्वाब है...


पा ली कभी खो दी
हँस दी कभी रो ली
छीन ली या बाँट दी
पल में उम्र गुजार दी
प्यार है एतबार है
या बनावटी श्रंगार है
मोतियों सी आब है
ये कुदरती नवाब है


लिपट गई सिमट गई
खुल गई बिखर गई
इश्क है जुनून है
पानी है या खून है
बंदिशो की अजाब है
फिर भी आफ़ताब है
ये ज़िंदगी किताब है
बस इक हसीन ख्वाब है...

शानू

Sunday, March 2, 2014

एक हॉस्य कविता



जब से सिमट गया है
सारा घर मोबाइल में
इमोशन खो गये हैं 
व्वाट्स अप की स्माइल में
बच्चे सामने आने से 
कतराते हैं
अब बस मोबाइल पर ही
बतियाते हैं
पहले यदा-कदा
प्यार भरे दो बोल 
कह दिया करते थे
डाल गले में बाहें
झूल लिया करते थे
अब तो मोबाइल पर ही
मुस्कुराते हैं
टाटा बाय-बाय
हाथ हिलाते है
बस लव यू मम्मा
कह पाते हैं....
शानू

Friday, January 10, 2014

छिपकली




कितनी बार कहा है
दीवार से चिपकी 
मत सुना कर लोगों की बातें
मगर वो न मानी थी, 
आखिरकार गुस्से मे आ 
हाथ की पँखी से
काट डाली थी पूँछ आम्गुरी लोहारिन ने
कुछ देर बिलबिलाती रही
और शाँत हो गई, 
मगर वो जिद्दी 
पूँछ कटी होकर भी 
सुनती रही लोगों की बातें, 
कितनी बार कहा है धीरे बोला करो, 
वो अबतक 
चिपकी है दीवार से 
मैने कहा था न 
दीवारों के भी कान होते हैं...

शानू

Wednesday, January 8, 2014

नही पड़ता फर्क





नही पड़ता फर्क 
तेरे कुछ न कहने से
तेरे दूर होने या 
पास होकर भी न होने से
किन्तु 
होती है बेचैनी
भर जाती हूँ एक अज़ीब सी चुप्पी से
या चहकती हूँ बेवजह मै
कैसी कशमकश है 
मुझे खुद से जुदा किये है
फिर भी नही कह पाती
ये खुदकुशी है...

शानू

Monday, December 30, 2013

कसम



कसम

कसम खाई थी दोनों ने,
एक ने अल्लाह की-
एक ने भगवान की-
दोनों ही डरते थे,
अल्लाह से भगवान से
मगर...
उससे भी अधिक डर था उन्हें
खुद के झूठे हो जाने का,
उस पाक परवर दिगार से-
मुआफ़ी माँग ली जायेगी
कभी भी
अकेले में॥

Thursday, December 26, 2013

तेरी किस्मत बाबू

कल बड़े दिन की खुशी में हम भूल गये उन सड़क किनारे के बच्चों को जिनके आगे से न जाने कितने सांता गाड़ियों में आये और रेड लाईट से होकर गुजर गये। उसी एक वाकये पर यह कविता लिखी है...देखिये जरा...




तेरी किस्मत बाबू
थोड़ा सा दे दो..
मेरी क्रिसमस...
नही… तेरी किस्मत
नही बच्ची कहो मेरी क्रिसमस
मगर कैसे कहे वो मेरी क्रिसमस
सान्ता आया था
गाड़ी में बैठ कर
कभी इस नेता के घर
कभी उस अभिनेता के घर
गाड़ी के शीशे पर गंदले हाथों से
थाप देती रही
मांगती रही वो बच्ची
कहती रही
बाबू आज तेरी किस्मत है
मुझे भी दे दो थोड़ा सा कुछ
मगर फ़ुर्सत नही
उस सांता बने बाबू को
इतना भरा था थोली में
लेकिन नही आता था नज़र
थोड़ा सा
झोली के किसी कौने में भी...:(

सुनीता शानू

Thursday, September 26, 2013

खामोशी से बरस गया

आज बहुत तेज़ बारीश आई बस यूँही लिख डाला एक पैगाम  उस आवारा बादल के नाम जो एक हवा के झोंके से कहीं भी बरस जाता है...


गुगल से साभार





बहुत दिनों से
घुटन सी
घिर आई थी
कली-कली भी
कुम्हलाई थी
प्यास कोई एक
भटक रही थी
धरती सी
बिन पानी के तड़प  रही थी
रुकी-रुकी सी सांसों ने
आधी-अधूरी बातों ने
जाने क्या समझाया
कि
न वादा तोड़ा न साथ चला
बस खामोशी से बरस गया...
शानू

Saturday, September 21, 2013

फिर आई एक याद पुरानी...

ये वो कविता है जिसे हिन्दी के अक्षरों में लिखने में बहुत समय लग गया था। मै देवनागरी से परीचित नही थी और बहुत मुश्किल से सुषा फोंट्स का जुगाड़ कर लिख पाई थी। इसके बाद कृति देव और अब बराहा देवनागरी :) बहुत ही आसान हो गया है हिन्दी लिखना...बहुता पुरानी कविता है जिसे पुराने ई कविता ग्रुप के लोगों ने पढ़ा और सराहा भी था... तथा कमिया भी बताई थी।



Ref :-102_sunita         DATE_05.08.2006

ना जाने क्या हो जाता है ...

ना जाने क्या हो जाता है...आती है जब याद तेरी...
दिल खो जाता है... जाने क्या हो जाता है...

तनहा-तनहा दिन कटते हैं, तनहा-तनहा राते है ;
तनहा-तनहा मन है मेरा... तनहाई मे बातें हैं ।
तेरे आने की खुशी में...जाने कब वक्त कट जाता है
जाने क्या हो जाता है,

जबसे तुझसे लगन लगी है...एक तस्वीर बसी है मन में,
रातों में तेरे सपने हैं...एक हुक जगी है तन में।
तुझको पाने की चाहत में...दिल बाग-बाग हो जाता है
जाने क्या हो जाता है...

कल मुलाकात हुई तुमसे तो...दिल को कोई होश नही है
तन-मन मेरा  ऎसे डोले,..आंखें भी खामोश नही हैं।
बेचैनी बड. जाने से...दिल को रोग लग जाता है।
जाने क्या हो जाता है...

...गर है मरहम कोई तो...इस दिल को आज दवा देदो,
मायूस ना हो जाये ...दिल में थोङी जगह देदों।
मिल जाने दो दिल को दिल से...दिल आज मेहरबां हो जाता है,
ना जाने क्या हो जाता है...

सुनीता चोटिया   
 (सुनीता शानू)


Tuesday, September 10, 2013

कहानी की कविता

दोस्तों एक कहानी लिखी है "एक अकेली" कहानी के भीतर की कविता यहाँ प्रस्तुत है ये खत कहानी की नायिका सौम्या ने अपने प्रेमी शेखर को लिखा था उसी खत का थोड़ा सा अंश प्रस्तुत है...

आज पहली बार चली हूँ दो कदम

तुम्हारे बिन

आज पहली बार कुछ किया है मैने

तुमसे कहे बिन

तुम्हारी नाराजगी या तुम्हारी हाँ की

परवाह किये बगैर

प्यार में हद से ज्यादा परवाह कहीं

बंदिशे तो नहीं...

शायद आज तुम भी सोच पाओगे जीना

मेरे बिन

पहल मैने कर दी है और शुरुआत भी

मेरी ही थी....
सुनीता शानू

अंतिम सत्य