चाय के साथ-साथ कुछ कवितायें भी हो जाये तो क्या कहने...

Thursday, January 24, 2013

माँ




माँ आज फिर ’तुम’
याद आने लगी हो

कई सालों से
नही मिला आँचल तुम्हारा
वो आँचलजिसकी ओट में
खेलती थी छुपछुपाई
वो आँचल जिसके कौने से
पोंछती थी तुम मेरे आँसू
उसी आँचल की छाँव में
बसता था मेरा नन्हा संसार
कई बार 
तुमसे डाँट खा कर
छुपा लेता था वही आँचल
माँ आज फिर तुम
बहुत याद आने लगी हो

आज फिर जरूरत है
तुम्हारी गोद की
तुम्हे याद है न
रात को अचानक
किसी बात से डर कर
मेरा चौंक कर उठना
और तुम्हारे सीने से लिपट
सो जाना
जैसे कुछ हुआ ही नही
आज फिर जरूरत है माँ
तुम्हारी
मेरे चारों तर
बुन गया है भयानक मकड़जाल
और मेरी साँसे घुटने लगी हैं
शायद अब मै चौंक कर उठने वाली हूँ
लेकिन ऎ माँ अब कौन सुलायेगा
फिर से मुझे?
माँ आ जाओ एक बार
कई दिनों से
मै
सोई नही हूँ

14 comments:

  1. अच्छॆ भाव
    अच्छी कविता

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  2. बहुत मार्मिक।
    माँ का कोई विकल्प भी तो नहीं होता।

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  3. माँ .........
    कोई और उसकी जगह कहाँ ले सकता है भला?
    ~सादर!!!

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  4. बाद मुद्दत के मयसर हुआ मां का आँचल
    बाद मुद्दत के हमें नींद सुहानी आई ।
    मां तो आखिर मां ही हैं ........

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  5. आज तलक वह मद्धम स्वर
    कुछ याद दिलाये, कानों में !
    मीठी मीठी धुन लोरी की ,
    आज भी आये , कानों में !
    आज मुझे जब नींद न आये, कौन सुनाये आ के गीत ?
    काश कहीं से, मना के लायें, मेरी माँ को , मेरे गीत !

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  6. माँ का कोई विकल्प नहीं .... बहुत सुंदर रचना

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  7. मन को छूते भाव ....माँ तो माँ ही होती है

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  8. माँ!
    बस स्मृतियाँ हैं ,जो मन को सिक्त कर देती हैं.अब तो वे घर भी नहीं बचे जहाँ माँ की छाँह मिली थी

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  9. सच में माँ रब की तरफ से बहुत बड़ा तोहफा है इंसानियत के लिए।

    बहुत अच्छा लिखा है सुनीता जी!

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  10. क्या कहूँ... वैसी नीद तो अब नसीब नहीं.

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  11. माँ की भावभीनी स्मृतियों में भीगी बहुत ही प्यारी रचना ! गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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स्वागत है आपका...

अंतिम सत्य